गायब होते आँगन के आंगतुक

- लखनऊ से योगेश मिश्र

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अब आँगन में फुदकती गौरैया, घरों में बने उसके घोसलों से अंडे फोड़कर निकले चूजे और घर के आस-पास उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों के संग खेलने के हमारे दिन लद गए है।

अब तो कौवा, तोता, मैना सरीखी चिडि़यों के साथ-साथ गिद्धों के सामने भी अस्तित्व का संकट मंडराने लगा है और ऐसा हमारी अपनी 'कारगुजारियों' के कारण हुआ है।

सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर इनके दुलर्भ श्रेणी में चले जाने की चिंता का ढि़ढोरा तो बहुत पीटा जाता है पर इन्हें बचाने के प्रयास बहुत कम होते हैं। तेजी से कम होती जा रही इन जीवों की तादाद ने पर्यावरणविदों और पक्षी वैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया है। गौरैया की तेजी से घटती संसख्या से चिंतित एक पक्षी वैज्ञानिक ने तो नासिक में गैरेया के घोसलें बनाकर बेचने का अभियान ही चला रखा है।

'गिद्धों के विलुप्त होने की वजह जानवरों को दर्द निवारण के लिए दी जाने वाली दवाई डाई क्लोरोफिनेक है। आमतौर पर बूढ़े पशुओं को यह दवाई दी जाती है। मर जाने पर ऐसे पशु, जिन्हें यह दवाई दी गई हो, का माँस खाने से गिद्धों का गला अवरूद्ध हो जाता है।
जीवों के लिए काम करने वाली मुंबई की एक संस्था का मानना है कि जल्दी ही गौरैया भी गिद्धों की तरह दुर्लभ हो जाएगी। गौरैया के दुर्लभ होने की बड़ी वजह कामशक्तिवर्धक दवाएँ है जिनमें गौरैया के अंडे का इस्तेमाल अनिवार्य और सबसे फायदेमंद माना जाता है। मॉनीटर छिपकलियों और भालू के गॉलब्लाडर के बाद गौरैया के अंडों का इस्तेमाल इनमें होता है।

देश के हर छोटे-बड़े पक्षी बाजार में कछुओं की खरीद-बिक्री आम है। कछुओं से भी कामशक्ति बढ़ाने वाली दवाएँ बनाई जाती है। कामोत्तेजक दवाएँ बनाने वाले माफिया ने शुरूआती दौर में गैंडों के सींग से भी भस्म तैयार की। गैंडों पर इनकी कुदृष्टि का ही नतीजा था कि देश में इनकी संख्या घटकर 200 तक रह गई। गिलहरियों और चमगादड़ों का शिकार भी इनके लिए हो रहा है।

उत्तरप्रदेश का राज्य पक्षी सारस भी दुर्लभ हो रहा है। देश में कुल चार हजार सारस बचे हैं जबकि दुनिया में इनकी कुल संख्या दस हजार के आसपास बताई जाती है। भारत के सारसों में अधिकांश उत्तर प्रदेश में ही रहते हैं। इन्हें दलदली जमीन चाहिए होती है जिनकी कमी की वजह से वे भी विलुप्त हो रहे हैं। लोग सारस के अंडे का आमलेट भी खाते हैं। इससे भी समस्या गंभीर हुई है।

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सैफई में भी मुलायम सिंह यादव द्वारा हवाई पट्टी बनवाने की कोशिश पर पक्षी वैज्ञानिकों ने काफी शोर-शराबा मचाया था। पक्षी वैज्ञानिक विलीदा राइट ने तो सर्वोच्च अदालत में मुकदमा तक किया था कि अगर इस इलाके में हवाई पट्टी बनी तो सारसों के प्रवास का क्षेत्र नष्ट होगा। गौरतलब है कि सारस की सबसे अधिक तादाद मैनपुरी जनपद में ही है।

पक्षियों के गायब होने की अलग-अलग वजहें हैं। बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के निदेशक डॉ. अशद रहमानी का शोध बताता है कि 'गिद्धों के विलुप्त होने की वजह जानवरों को दर्द निवारण के लिए दी जाने वाली दवाई डाई क्लोरोफिनेक है।

आमतौर पर बूढ़े पशुओं को यह दवाई दी जाती है। मर जाने पर ऐसे पशु, जिन्हें डाई क्लोरोफिनेक दवा दी गई हो, का माँस खाने से गिद्धों का गला अवरूद्ध हो जाता है और वे मर जाते हैं।'भारत सरकार ने इस दवा पर कागजी पाबंधी आयद कर दी पर इसका अवैध उत्पादन और बिक्री जारी है।

पहले घर की महिलाओं द्वारा गेहूँ और चावल इत्यादि के दाने बीनने की प्रक्रिया में पक्षियों के खाने लायक दाने बाहर फेंक दिए जाते थें। इन्हें चुनने के आकर्षण में पक्षी घरों तक आते थें और जीवित भी रहते थे लेकिन अब मॉल संस्कृति के बाद घरों में पैकेट बंद चावल आने लगे हैं। मोबाइल फोनों की विद्युत चुंबकीय तरंगों ने भी छोटी चिडि़यों की जिंदगी दिक्कत में डाली है।

वाहनों में अनलीडेड पेट्रोल के बढ़ते इस्तेमाल के चलते वातावरण में घुल रहे मिथाइल नाइट्रेट जैसी गैसों ने भी इनके लिए दुश्वारियाँ खड़ी की है। उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से दाना चुगने वाले जीवों का जीवन संकट में है।

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