गाँधीजी न तो शांतिवादी थे, न ही समाजवादी और न ही व्याख्यामय राजनीतिक रंग में रंगने वाले व्यक्ति थे। वे बस, जीवन के शुद्ध विद्यमान सत्यों से जुड़े रहे। और इसी को आधार बनाकर उन्होंने सारे निर्णय लिए। गाँधीजी का जीवन इस बात का साक्षी है तथा प्रेरित करता है किसत्य का आचरण किया जा सकता है। अहिंसा, मानवीय स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के प्रति गाँधीजी की प्रतिबद्धता सावधानीपूर्वक व्यक्तिगत परीक्षण के बाद जीवन के सत्य से ही पैदा हुई थी।
यह कोई जरूरी तो नहीं है कि महात्मा गाँधी को हम केवल गाँधी जयंती या 2 अक्टूबर को ही याद करें। 2 अक्टूबर को तो लालबहादुर शास्त्री को भी याद किया जा सकता है। उनके अलावा अन्य हजारों लोगों का जन्म इस दिन हुआ था। महात्मा गाँधी को तो हर दिन, हर वक्तयाद रखने की जरूरत है, भले ही हम उनके सोच और कार्यक्रमों से सहमत हों या सहमत नहीं हों।
उन्होंने जो कुछ किया और जो रास्ता बतलाया उसका महत्व किसी भी हालत में कम नहीं हो सकता। उनके जीवनकाल में ही उनका विरोध करने वाले अनेक लोग थे। उनका होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि स्वयं गाँधी ने उनका विरोध किया था। ब्रिटिश साम्राज्य के समर्थक, देश का विभाजन चाहने वाले, हिन्दू राष्ट्र की माँग करने वाले, हिंसा को साधन मानने वाले, पूँजीवादी और साम्यवादी व्यवस्था में विश्वास रखने वाले और धार्मिक दुराग्रह रखने वाले लाखों लोग तब भी गाँधीजी के विरोधी थे। हजारों लोग तब भी और आज भी गाँधीजी के विचारों और कार्यक्रमों की मजाक बनाने में नहीं हिचकिचाए। मगर गाँधीजी कभी विचलित नहीं हुए और अकेले या जो भी साथ आया, उसको लेकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ते गए।
गाँधीजी आज फिर अकेले पड़ गए हैं। अब तो न कोई जवाहरलाल, वल्लभभाई, मौलाना आजाद, सुशीला नैयर, प्यारेलाल, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे या कुमाराप्पा हैं और न माउंट बेटन, आइंस्टीन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी या घनश्यामदास बिड़ला, जो उनकी सलाह माँगें। अब तो ज्यादातर लोग वे हैं जो उनकी मूर्तियाँ लगाने, उनकी तस्वीरें छपवाने या उनकी जय के नारे लगाकर सत्ता, लाइसेंस या मुनाफा बटोरने को उत्सुक हैं। थोड़े-बहुत लोग वे भी बचे हैं जो उन्हें देश-विभाजन का जिम्मेदार मानने या वैज्ञानिक प्रगति का विरोध करने वाला मानने की भूल कर बैठते हैं।
यह कोई जरूरी तो नहीं है कि महात्मा गाँधी को हम केवल गाँधी जयंती या 2 अक्टूबर को ही याद करें। 2 अक्टूबर को तो लालबहादुर शास्त्री को भी याद किया जा सकता है। उनके अलावा अन्य हजारों लोगों का जन्म इस दिन हुआ था।
मूर्तियाँ खंडित हो रही हैं, तस्वीरों पर धूल जम रही है और गाँधीजी केवल नोटों पर छपने के कारण पहचाने जा रहे हैं। गाँधीजी की आवाज तो लोग भूल ही गए हैं, मगर उनका बोला और लिखा उन किताबों में कैद हो गया है, जो पढ़ी नहीं जातीं। गाँधीजी के विचार और कार्यक्रम उन लोगों के पास रह गए हैं, जो गाँधीजी के नाम से जुड़कर अपना अस्तित्व कायम रखे हैं।
यह कोई जरूरी तो नहीं है कि महात्मा गाँधी को हम केवल गाँधी जयंती या 2 अक्टूबर को ही याद करें। 2 अक्टूबर को तो लालबहादुर शास्त्री को भी याद किया जा सकता है। उनके अलावा अन्य हजारों लोगों का जन्म इस दिन हुआ था।
अब तो मुन्नाभाई लगे हैं गाँधीजी को बुलाने, वह भी रामधुन गाकर। फिल्में देखने से कतराने वाले भी यदि इस फिल्म को देखने की हिम्मत करें तो शायद गाँधीजी के विचारों और कार्यक्रमों पर सोचने की नए सिरे से शुरुआत हो जाए। गाँधीजी के व्यक्तित्व व व्यक्तिगत जीवन की घटनाएँ तो बहुत ही साधारण थीं, मगर उनका आग्रह असाधारण था।
केवल धोती-दुपट्टा पहनकर या बकरी का दूध लेकर वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री या भारत के वायसराय या मेवाड़ के महाराणा से मिलने में झेंपे नहीं, तकली या चरखे पर सूत कातने में हिचके नहीं और झाडू लेकर सड़क साफ करने या पाखाना उठाने में शर्माए नहीं। फोटो भी नहीं खिंचवाई और छपाई।
अंतिम समय तक शांति और अहिंसा का आग्रह करते रहे। अपनी हत्या के प्रयत्नों की जानकारी और शारीरिक दुर्बलता के बावजूद प्रार्थना सभा में उपस्थित रहने का साहस जुटाया। लोगों ने उनके साथ ज्यादती की। एक गाल पर चाँटा खाकर दूसरा गाल सामने करने वाले गाँधीजी को मजबूरी की मसीहा बताया गया।
अब क्या गाँधीजी वापस आएँगे? नहीं। अब तो यह यकीन करना भी कठिन है कि गाँधीजी इस धरती पर पैदा हुए थे। उनकी हर बात से हम अपने को दूर कर रहे हैं। विश्व-शांति की बात तो कर रहे हैं, मगर सेना, सुरक्षा, परमाणु शक्ति और अंतरिक्ष अनुसंधान पर अरबों रुपया व्यय कर रहे हैं। सत्य की खोज में लगे हैं और अपने भक्तों व परिवार के सदस्यों से ही झूठ बोल रहे हैं। विज्ञापनों में बड़े अक्षरों व तस्वीरों में जो लिखते हैं, उसका अपवाद पढ़े न जा सकने वाले छोटे अक्षरों में छापते हैं।
राजस्व और अनुदान की चोरी को चोरी नहीं मानते। खादीस्वावलंबन के बजाए निर्यात का आधार हो गई है। घरों में वाहन रखने की जगह नहीं है और शहरों में बस स्टैंड नहीं है, मगर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे तैयार हो रहे हैं। बकरी को पालना मुश्किल है, यंत्रीकृत डेरियों का पैकेज्ड दूध ही पीना होगा। नई सभ्यता, संस्कृति,शिक्षा प्रणाली ओर वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, वैज्ञानिक प्रगति तथा राजनीतिक रणनीतियों के चक्रव्यूह में गाँधीजी के उभरकर खड़े रहने की कोई संभावना नहीं है।