भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जन्मदिवस (2 अक्टूबर) को पहली बार 'अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में मनाया जा रहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि गाँधी सिर्फ आजादी के पहले ही नहीं बल्कि आजादी के 60 वर्ष बाद भी उतने ही सामयिक हैं। सत्य, प्रेम, अहिंसा के दृढ़ सिद्धांत आज भी आतंकवाद से जूझ रही इस दुनिया को नया संदेश दे रहे हैं।
मानव के प्रति गाँधीजी का दृष्टिकोण आध्यात्मिक था। इस दृष्टि से वे उस तरह के मानववादी नहीं थे जैसे कुछ विचारक कहलाए जाते हैं, जो मानव को केवल देह के रूप में देखते हैं और इस बात से उन्हें कोई सरोकार नहीं कि क्या मानव आध्यात्मिक उन्नति भी कर सकता है। गाँधीजी का मानव के प्रति दृष्टिकोण सभी भारतीय धर्मों का निचोड़, जैसा उन्होंने समझा था, पर आधारित है।
गाँधीजी हिन्दूधर्मी थे और उन्हीं संस्कारों से प्रेरित होकर लोक जीवन में भी उनका प्रवेश केवल भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता दिलाने के लिए नहीं था,बल्कि सभी भारतीय लोगों का समग्र रूप से आत्मिक उत्थान हो और इसके माध्यम से समस्त विश्व में शांति और सद्भावना स्थापित हो, इस उद्देश्य से प्रेरित था। मानव सेवा के माध्यम से और अपने साथ समाज के सर्वांगीण उत्थान के लिए प्रयासरत रहकर मानव सेवा के मार्ग से वे मोक्षप्राप्ति की कामना करते थे। 'मोक्ष' से उनका अर्थ यह था कि मानव सभी विकार और दोषों से मुक्त हो।
मानव के प्रति इस विचारधारा में भारत का वैदिक दर्शन, उसकी संस्कृति व धर्मग्रंथों जैसे महाभारत, भागवत, रामायण, कुरान, बाइबल तथा मुख्य रूप से 'गीता' के उपदेशों से वे प्रभावित व प्रेरित थे। इसी आध्यात्मिक प्रेरणा के आधार पर उन्होंने अपनी जीवनशैली रची थी और अपने साथ तत्कालीन भारतीय जनसमुदाय को सहकार हेतु जागृत कर देश में एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया था कि जिसमें 'सत्याग्रह' एव 'अहिंसा के प्रयोग' अद्भुत स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत में देखे गए थे।
भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जन्मदिवस (2 अक्टूबर) को पहली बार 'अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में मनाया जा रहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि गाँधी सिर्फ आजादी के पहले ही नहीं बल्कि आजादी के 60 वर्ष बाद भी उतने ही सामयिक हैं।
सामान्यजन की धारणा यह है कि मानवाधिकारों के स्रोत सन् 1215 के 'मैग्नाकार्टा' तत्पश्चात अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा जो सन् 1776 में की गई थी, वे हैं। मानवीय स्वतंत्रताओं के संरक्षण की कटिबद्धता घोषित करते हुए अमेरिका का संविधान सन् 1789 में बना था। तत्पश्चात संयुक्त राष्ट्र संस्था के निर्माण के पश्चात मानवाधिकारों की सामूहिक घोषणाएँ 1949 में हुई थीं। ये सब मानव अधिकारों की मान्यता के स्रोत माने जाते हैं। भारत में तो मानवाधिकारों के स्रोत इससे भी पुरातनकाल से उसके वेदों तथा धर्मग्रंथों से प्राप्त होते हैं। भारत के ऋषि-मुनि तो विश्व नागरिक की कल्पना करते थे और इसलिए वेदों में 'विश्व मानुष' शब्द का प्रयोग हुआ। भारत के ऋषि-मुनियों की दृष्टि विशाल थी।
गाँधीजी से बढ़कर मानव की प्रतिष्ठा और उसके सम्मान की बात करने वाला शायद ही कोई महापुरुष रहा हो। गाँधीजी का मानव के प्रति सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा हेतु संघर्ष की शुरुआत तब हुई, जब ऊँचे दर्जे का टिकट होते हुए भी साउथ अफ्रीका की ट्रेन के कम्पार्टमेंट से उन्हें प्लेटफार्म पर धकेल दिया गया। यह दुर्व्यवहार साउथ अफ्रीका में उनके साथ केवल इसलिए हुआ कि वे गोरे वर्ण के नहीं थे और वहाँ रंगभेद की नीति थी। इस भयंकर अपमान की प्रतिक्रिया में गाँधीजी के बजाए कोई अन्य व्यक्ति होता, तो वह बंदूक उठा लेता और बागी बन जाता तथा वृहद रूप से नरसंहार की तैयारियाँ भी करता।
परंतु उनकी प्रतिक्रिया यह थी कि 'रंगभेद' के इस अमानवीय कृत्य से उसकी स्वतः की प्रतिष्ठा को ही ठेस नहीं लगी है परंतु उनके समान समस्त भारतीय या अन्य सामान्य व्यक्तियों का अपमान हुआ है। इस घटना के बाद साउथ अफ्रीका में उन्होंने अनेक आंदोलन सभी वर्गों के लोगों के साथ किए जिनके पीछे मुख्य विचार और ध्येय था कि मानव को मानव के रूप में प्रतिष्ठा और सम्मान शासन एवं शासन के लोगों द्वारा मिलना प्रत्येक मानव का अधिकार है।
उनके संघर्ष का ध्येय था मानव को केवल मानव होने के नाते प्रतिष्ठा एवं सम्मान मिलना चाहिए भलेही उसका रंग, वर्ण, जाति, राष्ट्रीयता, सामाजिक स्तर कुछ भी हो। इस विचारधारा की पृष्ठभूमि में हिन्दू धर्म में प्रतिपादित अद्वैत का सिद्धांत था। अद्वैत दर्शन में व्यक्ति और ब्रह्मांड में कोई भी फर्क नहीं माना जाता, क्योंकि दोनों ही एक-दूसरे के अंग हैं। इस आध्यात्मिक विचारधारा के अनुसार समस्त मानव जीवन एवं जगत सार रूप से एक है एवं समस्त मानव जगत को इस अनुभूति से प्रेरित होकर जीवनशैली निर्धारित करनी चाहिए।
मानव की प्रतिष्ठा के संबंध में गाँधीजी का यह भी विचार भारत के आध्यात्मिक दर्शन के आधार पर था कि निसर्गतः मानव सद्गुणों से भरा है। वह तो भौगोलिक, आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण ही कभी विकारों एवं अवगुणों से भर जाता है। गाँधीजी के समस्त सामाजिक कार्यक्रम इसी ध्येय से प्रेरित थे कि मनुष्य को अपने सद्गुणों का भान कराया जाए और शनैः-शनैः स्वयं के प्रयत्न से उसको अपने अवगुणों से दूर रहना सिखलाया जाए। इससे बढ़कर कोई भी मानव हित में किया हुआ कार्य नहीं हो सकता। यही कार्य ऋषियों, मुनियों और संतों और अवतारों ने किया था।
गाँधी विचारधारा की आलोचना करने वालों में एक वर्ग का कहना रहा कि गाँधीजी विज्ञान आधारित प्रगति के विरोधी थे। इस धारणा में एक भ्रम है। गाँधीजी ने सदैव कल-पुर्जों और मशीनों का विरोध किया, इसमें सत्यार्थ कम है। गाँधीजी ने औद्योगीकरण एवं मशीन के बढ़ावे का सुनियोजित संयोजन जो मानव हित में हो, उस पर बल दिया था। उनके अनुसार वैज्ञानिक संसाधनों और उपकरणों को उसी सीमा तक बढ़ाना चाहिए, जब तक कि उससे मानव जीवन और प्रतिष्ठा की हानि न हो। उनके अनुसार यदि यंत्रीकरण से मानवीय गुणों या जीवन-यापन के साधनों का क्षय या ह्रास होता है तो ऐसी यंत्रीकरण की नीति अस्वीकार होनी चाहिए। इसीलिए वे छोटे ग्राम उद्योगों को प्रोत्साहन देते थे व बड़े औद्योगीकरण के विरुद्ध थे। इस विरोध के पीछे भी भावना यही थी कि विज्ञान या यंत्र मनुष्य पर हावी न हो। उनके अनुसार हमें अपनी आर्थिक योजना इस आधार पर करनी है कि 'मनुष्य के लिए मशीन है, मशीन के लिए मनुष्य नहीं।'
सत्य और अहिंसा उनके साधन और साध्य दोनों थे और उसी दिशा में उनके सारे प्रयोग रहे। 'सविनय अनुज्ञा' 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' आदि ऐसे अनेक ऐतिहासिक प्रयोग उन्होंने सफलतापूर्वक इस देश में किए। उनके समर्थकों और अनुयायियों ने कितने आक्रमण और अत्याचार सहे लेकिन बदले की भावना से कभी भी शस्त्र नहीं उठाए। गाँधीजी की राष्ट्रीयता संकुचित नहीं थी। 'स्वदेशी भावना' जो उन्होंने जागृत की, वह भी संकुचित नहीं थी। उनका तो केवल यह कहना था कि हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य क्रमशः अपने पड़ोसी, अपने ग्राम, अपने नगर, फिर अपनेप्रांत, फिर अपने देश और फिर विश्व के प्रति है। हमें सेवा पड़ोस में करना है, परंतु हमारी दृष्टि वैश्विक हो ताकि उस सेवा के माध्यम से विश्वहित साध्य हो सके और इस तरह उन्होंने विश्व नागरिकता की ओर मानव को बढ़ने की प्रेरणा और उस हेतु प्रोत्साहन दिया।
उनके द्वारा उठाए गए सभी कार्यक्रमों पर दृष्टिपात करते हुए यह प्रतीत होता है कि गाँधीजी एक ऐसे महान मानव सेवक थे जिन्होंने मानव में ईश्वरीय तत्व ढूँढे और राजनीतिक जीवन में प्रविष्ट करने का प्रयत्न किया। उनके जीवन का समस्त कार्य इसी विचारधाराओं से प्रेरित था कि सारी प्रकृति का केंद्रबिंदु मानव है और मानव को सर्वप्रथम अपने कर्तव्य बताना है। उन मानव कर्तव्यों के निर्वहन में उसके स्वतः के मानव अधिकार एवं उसके संपर्क में आए अन्य मानवों के अधिकार स्वमेव सुरक्षित हो जाएँगे।
यदि किसी 'विशुद्ध मानव' जो सब नैसर्गिक मानवीय गुणों से परिपूर्ण हो, इसकी मूर्त कल्पना करनी हो, तो 'राम', 'कृष्ण', 'बुद्ध' अवतार के बाद गाँधीजी का व्यक्तित्व उभरकर आता है। गाँधीजी से बढ़कर मानवपूजक दिखलाई देना आसान नहीं है। वे सदैव मानव अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति समर्पित सभी संस्थाओं औरव्यक्तियों के आदर्श के रूप में देखे जाएँगे।
गाँधी विचारों के प्रसिद्ध मीमांसक आचार्य दादा धर्माधिकारी ने गाँधीजी के मानवाभिमुखी विचारों और आचरणों का गौरव करते हुए उनके व्यक्तित्व को 'मानवता का मानदंड' यह विशेषण दिया है। उनके व्यक्तित्व का गौरव वे इन शब्दों में करते हैं। 'गाँधी विचार और आचार प्रणाली अत्यंत उदात्त, शास्त्र शुद्ध और वस्तुनिष्ठ है। दुनिया में सब जगह जातिवाद और संप्रदायवाद का बोलबाला हो, चारों तरफ तलवार और शस्त्रास्त्रों की भाषा सुनाई दे रही हो, मानव, मानव का बैरी बनने में ही अपने जीवन को सार्थक मान रहा हो, ऐसे में जो महामानव उच्च स्वर में, 'मुझे मेरी अहिंसा की शर्म महसूस नहीं होती'- ऐसा नम्र आत्मप्रत्यय के साथ कहता हो, मानव-द्रोह के विषैले झंझावात में जिसकी मानव निष्ठा बुझने के बदले और अधिक प्रज्वलित होती हो, उसका चरित्र और चारित्र्य, उसका तत्वज्ञान और नीति, सागर के समान व्यापक है।
गंगा की तरह पवित्र है और गौरीशंकर सदृश उज्ज्वल और उत्तुंग है। महाकवि कालिदास का देवतात्मा हिमालय पृथ्वी का मानदंड है, महामानवात्मा गाँधीजी अखिल मानवताक का मानदंड हैं। उनकी वृत्ति से, उक्ति से और कृति से मानवता की लंबाई, चौड़ाई,ऊँचाई और गहराई मापी जा सकती है। ऐसे महामानवात्मा को, उनके अकुण्ठित निष्ठा को, उनके असीम पौरुष को, उनके अनंत वीर्य और अपराजेय पराक्रम को शतशः प्रणाम! यही मानव का भव्य, पुण्यकारी और कल्याणमय 'विश्वदर्शन' है।