गाँधीजी एक संपादक के रूप में

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यदि गाँधीजी राष्ट्रपिता न होते तो शायद इस शताब्दी के महानतम भारतीय संपादक होते। अपने छात्र काल से ही उन्हें लिखने व नाना प्रकार की ऐतिहासिक, साहित्यिक व अन्य विषयों की पुस्तकें पढ़ने का चाव था। उनके स्कूल व कॉलेज के लाइब्रेरियन उनसे खीझ जाते थे कि यह छात्र तो कहाँ-कहाँ से ढूँढकर पुस्तक सूचिका लाता है और किताबें माँगता है।

लिखने का चाव गाँधीजी को कितना अधिक था, इस बात का अनुमान ऐसे लगाया जा सकता है कि वे अपने दाएँ व बाएँ दोनों हाथों से लिखा करते थे। यही नहीं, वे समुद्र में हिचकोले लेते जहाज पर, चलती रेल में और पथरीले रास्ते पर चलती मोटर गाड़ियों में भी लिख लिया करते थे। लिखते-लिखते जब एक हाथ थक जाता था तो वे दूसरे हाथ से लिखना प्रारंभ कर देते थे।

1896 में जब गाँधीजी इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका जा रहे थे तो जहाज पर उन्होंने एक पुस्तक 'ग्रीन पैम्फ्लेट' की रचना की। इसी प्रकार जहाज में ही उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक 'हिन्द स्वराज' लिखी। जब बाएँ हाथ से लिखते तो अँगरेजी और दाएँ हाथ से लिखते तो गुजराती और उर्दू खूबसूरती से लिखा करते थे। लिखने की रफ्तार उनके चलने की रफ्तार से कहीं तेज होती। आवश्यकता पड़ने पर स्वयं टाइप भी कर लिया करते थे।

गाँधीजी जो पुस्तक पढ़ते थे, उनसे न केवल वे स्वयं सीखते थे बल्कि दूसरों को भी अच्छाई का संदेश देते थे क्योंकि उन पुस्तकों का निचोड़ वे अपने लेखन में भी देते थे। उनका पुस्तकें पढ़ने का एक उद्देश्य यह भी होता था कि उसको वे अपने संपादकीय लेखन में शामिल करें।

जो पुस्तकें उन्हें अत्यधिक पसंद थीं वे हैं- 'ड्यूटीज ऑफ मैन' (लेखक : मजीनी), 'ऑन द ड्यूटीज ऑफ सिविल डिसओबीडियन्स' (लेखक : एच.डी. थोरो), 'द की टू थियोसॉफी' (लेखिका : मादाम ब्लावाट्स्की), 'पॉवर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' (लेखक : दादाभाई नौरोजी), 'द लाइट ऑफ एशिया' (लेखक : एडिवन आर्नल्ड) आदि। इन सभी विश्व विख्यात पुस्तकों का निचोड़ गाँधीजी ने एक बहुचर्चित पुस्तक 'कन्स्ट्रक्टिव प्रोग्राम' में दिया।

जो लेख या पुस्तकें गाँधीजी ने लिखीं उनमें कहीं भी संपादक द्वारा लाल निशान नहीं लगता था, न ही कोई तथ्य बदला जाता था। सर पेथिक लॉरेंस ने तो यह भी कह दिया था कि भारत में गाँधी से अच्छा अँगरेजी लेखक कोई नहीं है। उनकी यह विशेषता थी कि एक शब्द भी अपने कलम या मुख से बेवह नहीं कहते थे। लिखते ऐसे थे मानो सामने बैठकर बात कर रहे हों। सर ए.वी. एलेक्जान्डर ने कहा था कि गाँधीजी के संपादकीय लेखों का एक-एक वाक्य 'थॉट फॉर द डे' के लिए मुनासिब था। हर वाक्य को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता था मानो दस-दस बार तौला गया हो।

उर्दू पत्रिका 'मखजिन' में मौलाना आजाद ने गाँधीजी के लेखन के बारे में लिखा है- 'मेरी तरह ही महात्मा साहब को भी लिखने की कभी न खत्म होने वाली भूख थी। गाँधीजी की बदकिस्मती यह थी कि इस कला को सियासत ने उस दर्जे तक नहीं उठने दिया जैसा कि चाहते थे। कितने ही लेख और पुस्तकें इस कारण गाँधीजी के कलम से पूर्ण न हो सके।'

मौलाना आजाद ने अपने एक अन्य पत्र में लिखा है कि गाँधीजी की अँगरेजी ड्राफ्टिंग ऐसी थी कि स्वयं अँगरेज पत्रकार और लेखक दाँतों तले उँगली दबा लेते थे। गाँधीजी के लिखने की यह हालत थीकि जब वे मध्य भारत के छोटे कस्बों और देहातों में बैलगाड़ियों में यात्रा कर रहे होते थे तो अपनी गुजराती पत्रिका का संपादन भी किया करते थे और राजनीति के दाँव-पेचों से भी निपटा करते थे। उनके पास इस पत्रिका की कई फाइलें होती थीं। रात को जब सबसो जाते थे तो दो-तीन बजे तक संपादन कार्य चलता था। सारा कार्य वे स्वयं करते, किसी की सहायता नहीं लेते।

सन्‌ 1904 में गाँधीजी ने 'इंडियन ओपीनियन' का संपादन संभाला। इसका उद्देश्य था दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को स्वतंत्र जीवन का महत्व समझाना। इसी के द्वारा उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार भी प्रारंभ किया। 1906 में जोहानेसबर्ग कीजेल में उन्हें बंद कर दिया गया तो वहीं से उन्होंने अपना संपादन कार्य जारी रखा।

एक संपादकीय में गाँधीजी ने लिखा कि सत्याग्रह का नारा उन्होंने अमेरिकी लेखक एच.डी. थोरो से लिया, जिसमें थोरो ने अमेरिकी सरकार को बढ़ा हुआ चुंगी कर देने से इंकार कर दिया था और इसके लिए थोरो को जेल भी जाना पड़ा था। 'इंडियन ओपीनियन' के लिए गाँधीजी ने कभी चंदा नहीं लिया और न ही विज्ञापन स्वीकार किए। वे स्वयं अपनी वकालत की कमाई से पैसे बचाकर उसका प्रकाशन करते थे।

गाँधीजी को धार्मिक ग्रंथों व पुस्तकों से बड़ा लगाव था। 16 जनवरी 1918 को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने मौलाना आजाद को लिखा कि धर्म के बिना किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व पूर्ण नहीं है। उन्होंने सभी धार्मिक ग्रंथ अनुवाद सहित पढ़ रखे थे। गाँधीजी को उर्दू, अरबी और फारसी भी आती थी। बहुत कम लोगों को इस बात का ज्ञान था।

धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित हिन्दी के प्राइमरी स्तर के बच्चों की नैतिक शिक्षा हेतु गाँधीजी ने एक पुस्तक रची- 'बाल पोथी'। इसके अतिरिक्त बच्चों के लिए 'नीति धर्म' नामक पुस्तक भी गाँधीजी द्वारा लिखी गई, जिसमें उनके द्वारा बच्चों को लिखे गए पत्र शामिल हैं। यहबात भी कम लोग जानते हैं कि गाँधीजी के जीवन से बच्चे इतने प्रभावित थे कि आए दिन उनको चिट्ठियाँ लिखते थे और गाँधीजी प्रत्येक बच्चे को अपने हाथ से जवाबी पत्र लिखते थे।

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पत्रिकाओं के संपादन के अतिरिक्त महात्मा गाँधी एक दक्ष अनुवादक भी थे। रस्किन की विख्यात पुस्तक 'अन टू द लास्ट' का अनुवाद गाँधीजी ने गुजराती में किया और यह 'सर्वोदय' के नाम से प्रचलित हुआ। इसी प्रकार 'आश्रम भजनावली' का अनुवाद उन्होंने अँगरेजी में किया। ऐसेही जब गाँधीजी जेल में थे तो उन्होंने संस्कृत के कुछ जाने-माने श्लोकों का अनुवाद अँगरेजी में 'सांग्ज फ्रॉम द प्रिजन' के रूप में किया। वे जेल में ही बाइबल का भी गुजराती में अनुवाद करना चाहते थे मगर जेल से जल्दी छूटने के कारण यह कार्य संपन्न नहीं हो सका।

'यंग इंडिया' का संपादन जब गाँधीजी ने प्रारंभ किया तो यह बड़ा पसंद किया गया। लोगों ने जोर डाला कि इसका एक संस्करण गुजराती में भी प्रकाशित किया जाए। गाँधीजी ने जनता की इच्छा को सम्मान देते हुए गुजराती संस्करण को 'नवजीवन' का नाम दिया। यह तो इतना अधिक चला कि बाजार में आते ही हाथों-हाथ बिक जाता और इसके चाहने वाले दुकान-दुकान पर पूछते-ढूँढते फिरते।

'हरिजन' द्वारा भी गाँधीजी ने सामाजिक एकता व बराबरी का संदेश दिया। चूँकि इन समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का उद्देश्य स्वतंत्रता संघर्ष भी था, अँगरेजों ने गाँधीजी को बड़ा कष्ट दिया मगर गाँधीजी ने भी यह सिद्ध कर दिया कि वे इस मैदान में भी किसी से कम नहीं थे।

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