सेहत के लिए बहुत खास है उपवास, बीमारियों से मुक्ति दिलाता है, पढ़ें एक दिलचस्प आलेख..
धार्मिक विषय मान कर उपवास की उपेक्षा करता रहा विज्ञान अब उसमें रोगमुक्ति और दीर्घायु-प्राप्ति की चमत्कारिक क्षमताएं देखने लगा है।
वैसे तो हर धर्म में किसी न किसी बहाने से व्रत या उपवास रखने का विधान है, पर हिंदू धर्म में तो वर्ष का लगभग हर दिन किसी न किसी तीज-त्यौहार की परंपरा निभाने, किसी देवी-देवता के प्रति श्रद्धा जताने या निजी मान-मनौती की प्राप्ति के लिए उपवास रखने के उपयुक्त माना जाता है, वैज्ञानिक ही नहीं, अपने आधुनिक जीवन-दर्शन पर गर्व करने वाले प्रायः हम सभी लोग, व्रतों-उपवासों को पुरातनपंथी या अंधविश्वासी प्रथाएं होने का फ़तवा दे बैठते हैं। मान लेते हैं कि जो कुछ पुराना है, धर्मसम्मत है, वह विज्ञान-सम्मत नहीं हो सकता।
सौभाग्य से विज्ञान-जगत में कुछ ऐसे वैज्ञानिक भी होते हैं, विशेषकर चिकित्सा विज्ञान में, जो आज के ज्ञान को ही अंतिम विज्ञान नहीं मान लेते, ऐसे ही वैज्ञानिकों की कृपा से योग-ध्यान अब कोई अज्ञान नहीं रहा। योग-ध्यान के समान ही उपवास भी एक ऐसा स्वास्थ्य- विज्ञान बनने जा रहा है, जिसका उपहास उड़ाना एक दिन अज्ञान कहलायेगा।
रूस के साइबेरिया में उपवास द्वारा उपचार
रूस के अंतहीन विस्तारों वाले साइबेरिया में 10 लाख की जनसंख्या वाला बुर्यातिया एक स्वायत्तशासी 'गणतंत्र' है। 1995 से वहां उपवास द्वारा बीमारियां ठीक करने का एक प्रसिद्ध अस्पताल विभिन्न बीमारियों के हज़ारों रोगियों का इलाज़ कर चुका है। अस्पताल गोर्याचिंस्क नाम के जिस सुरम्य शहर है में है, वह बुर्यातिया की राजधानी उलान-ऊदे से क़रीब 250 किलोमीटर दूर मीठे पानी की संसार की सबसे बड़ी झील बाइकाल के पूर्वी तट पर बसा है।
बाइकाल झील किसी समुद्र जैसे विस्तारों वाली 31, 722 वर्ग किलोमीटर लंबी-चौड़ी और 1,642 मीटर तक गहरी एक ऐसी विशाल झील है, जिसमें संचित पानी विश्व के क़रीब 23 प्रतिशत भूतलीय मीठे जल के बराबर है। उपवास द्वारा उपचार करने वाला गोर्याचिंस्क का अस्पताल बाइकाल झील से केवल 100 मीटर की दूरी पर बना है। रूस में दूर-दूर से आए ऐसे लोगों का, जो आधुनिक मंहगी चिकित्सापद्धति से निराश हो चुके हैं, वहां सरकारी ख़र्चे पर इलाज किया जाता है। उपवास, बौद्ध धर्मियों के बहुमत वाले बुर्यातिया की स्वास्थ्य नीति का अभिन्न अंग है। वहां के स्वास्थ्य मंत्री स्वयं भी उपवास-प्रेमी हैं।
गोर्याचिंस्क में जिस उपवासी उपचारविधि का प्रयोग किया जाता है, उसे भूतपूर्व सेवियत संघ वाले दिनों के कम्युनिस्ट शासनकाल में, चार दशकों के दौरान, हज़ारों लोगों पर आजमा कर विकसित किया गया था। तब तथाकथित 'शीतयुद्ध' का ज़माना था। सोवियत नेतृत्व वाले पूर्वी यूरोप के देशों और अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों के बीच उस समय घृणा, अविश्वास और तनातनी-भरे प्रचार-युद्ध की एक दीवार-सी हुआ करती थी. एक-दूसरे पर लक्षित परमाणु अस्त्रों को तैनात करने की होड़ लगी हुई थी। इस कारण उपवास के द्वारा रोग-उपचार की रूसी विधि का रूस से बाहर किसी को पता नहीं चल पाया। न ही उससे संबंधित अध्ययनों का अन्य भाषाओं में कोई अनुवाद सामने आया।
पढ़ें कहानी जो मास्को से शुरू होती है
इस खोज की कहानी मॉस्को में मानसिक रोगों के उपचार के अस्पताल 'कोज़ाकोव क्लीनिक' से शुरू होती है। इस अस्पताल के मनोरोग चिकित्सक डॉ. यूरी निकोलायेव का सामना एक दिन अवसादग्रस्त (डिप्रेशन पीड़ित) एक ऐसे रोगी से हुआ, जो कोई अनशन नहीं कर रहा था, बल्कि कुछ भी खाने से मना कर रहा था। डॉ. निकोलायेव ने भी ज़ोर-ज़बरदस्ती करने के बदले उसे भूखा ही रहने दिया। उन्होंने पाया कि पांच दिनों के उपवास के बाद उस रोगी का अवसाद अपने आप घटने लगा था। उसकी आंखें भी अब खुली रहती थीं। दसवें दिन बिस्तर से उठ कर वह चलने-फिरने भी लगा, हलांकि अब भी मौन रहता था। 15 वें दिन उसने पहली बार अपने बिस्तर के पास रखे सेब का रस पिया और हवाख़ोरी के लिए कमरे से बाहर भी गया। धीरे-धीरे वह दूसरे लोगों से हिलने-मिलने और बातचीत भी करने लगा। अंततः वह पूरी तरह स्वस्थ हो कर अपने घर चला गया।
डॉ. निकोलायेव के लिए इस अनोखे अनुभव का अर्थ था कि यह मनोरोगी स्वैच्छिक उपवास से ही ठीक हुआ था। यानी, उपवास द्वारा मनोरोग ठीक किए जा सकते हैं। उन्होंने इस दिशा में और आगे जाने का निश्चय किया। सफलताएं आशातीत रहीं। मरीज़ों की क़तार लंबी होती गई। डॉ. निकोलायेव ने डिप्रेशन (मानसिक अवसाद) से लेकर शिज़ोफ्रेनिया (खंडित मनस्कता, मनोविदलता), फ़ोबिया (दुर्भीति) या ओसीडी (ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर/ सनकपूर्ण शंका-विकार) जैसे रोगों के अनेक पीड़ितों का उपवास द्वारा सफल उपचार किया। वे उनसे 25 से 30 या कभी-कभी 40 दिनों तक उपवास करवाते थे।
उपवास का उपहास
समस्या यह थी कि उस समय के दूसरे डॉक्टर भूखा रख कर किसी बीमार को ठीक करने की डॉ. निकोलायेव की उपचारविधि के मर्म को समझ नहीं पा रहे थे। अतः उनका उपहासपूर्ण विरोध होने लगा। सामान्य ज्ञान भी यही कहता है कि भोजन नहीं मिलने पर शरीर दुर्बल होने लगता है। दुर्बल शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता भी घटती जाती है। अतः भोजन नहीं मिलने से हर बीमारी बढ़नी चाहिए, न की ठीक होनी चाहिए।
अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए डॉ. यूरी निकोलायेव ने एक ऐसी व्यापक शोध-परियोजना शुरू की, जिसने रूसी चिकित्सा विज्ञान में एक नया अध्याय जोड़ दिया। उन्होंने सैकड़ों लोगों के उपचार से पहले, उपचार के दौरान और उसके बाद उनकी शारीरिक तथा जैवरासायनिक क्रियाओं को जानने के लिए हार्मोन-स्तर मापे, मस्तिष्कलेखी (एन्सिफ़ैलोग्राम) के द्वारा मस्तिष्क में होने वाले परिवर्तनों को देखा-परखा और सारे आंकड़ों का अध्ययन-विश्लेषण किया। सभी अध्ययनों ने उपवास के दौरान रोगियों के शरीर में हुए परिवर्तनों और उनके मानसिक स्वास्थ्य में आये सुधारों के बीच सीधा संबंध दिखाया।
अनुकूल शारीरिक और मानसिक प्रभाव
डॉ. निकोलायेव और 18 वर्षों तक उनके सहयोगी रहे डॉ. वालेरी गुर्बिच ने पाया कि 'उपवास का न केवल शरीर के, बल्कि मन के विकारों को दूर करने पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। विकारग्रस्त व्यक्ति का व्यक्तित्व तक बदलने लगता है। उन्हें कोई संदेह नहीं रह गया था कि अवसाद का दूर हो जाना, कई दिनों के उपवास के अनेक अनुकूल शारीरिक प्रभावों के साथ-साथ, एक बहुत ही उपयोगी मानसिक प्रभाव है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
डॉ. निकोलायेव ने अपने समय के सोवियत स्वास्थ्य मंत्रालय को जब इस बारे में सूचित किया, तो मंत्रालय को उनकी खोज पर विश्वास नहीं हुआ। मंत्रालय ने 1973 में कई डॉक्टरों की एक जांच समिति गठित की। इस समिति में सोवियत सेना के भी दो डॉक्टरों, अलेक्सेई कोकोसोव और वालेरी मक्सीमोव के नाम थे. डॉ. कोकोसोव फेफड़े से संबंधित श्वसन रोगों के विशेषज्ञ थे और डॉ. मक्सीमोव यकृत (लिवर) या अग्न्याशय (पैंक्रिअॅस) जैसी अंतःस्रावी ग्रंथियों (एंडोक्राइनल ग्लैंड्स) के विशेषज्ञ थे।
जांच समिति ने उपवास की उपयोगिता मानी
दोनों ने 'रोगोपचारी उपवास' के बारे में तब तक कुछ नहीं सुना था। उनसे कहा गया कि उन्हें शरीर के पाचनतंत्र में पाये जाने वाले तरह-तरह के बैक्टीरियों से लेकर कोशिकाओं में होने वाली चयापचय क्रिया (मेटाबॉलिज़्म) और रोगप्रतिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) तक सभी महत्वपूर्ण क्रियाओं तथा प्रणालियों पर उपवास के प्रभावों का पता लगा कर डॉ. निकोलायेव के निष्कर्षो के साथ तुलना करते हुए अपना निर्णय बताना है। समिति ने कई हज़ार मरीज़ों पर उपवास के प्रभावों की जांच-परख की और पाया कि डॉ. निकोलायेव के बताए निष्कर्ष पूरी तरह सही थे।
समिति ने डॉ. निकोलायेव के निष्कर्षों की पुष्टि से आगे जाते हुए विभिन्न बीमारियों वाले उन लक्षणों और प्रतिलक्षणों की एक सूची भी तैयार की, जो उपवास द्वारा उपचार के उपयुक्त या अनुपयुक्त समझे गए। इस सूची के अनुसार श्वसनतंत्र के रोगों, हृदय और रक्तसंचार की बीमारियों, उदर और आंत्र (गैस्ट्रिक-इन्टेस्टाइनल) विकारों, अंतःस्रावी ग्रंथियों (एंडोक्राइनल ग्लैंड्स) के रोगों, पाचनतंत्र वाले अवयवों की बीमारियों, जोड़ों और हड्डियों की बीमारियों तथा चर्मरोगों के प्रसंग में रोगोपचारी उपवास की अनुशंसा की जा सकती है। समित ने उपवास के अनुपयुक्त बीमारियों की सूची में कैंसर, तपेदिक (क्षयरोग/टीबी), मधुमेह (डाइअबीटीज़) टाइप1, चिरकालिक यकृतशोथ (क्रॉनिक हेपैटाइटिस), आनुवंशिक घनास्रता (जेनेटिकल थ्रॉम्बोसिस/रक्तवाहिका में रक्त का थक्का जम जाना), क्षुधा-अभाव (अनॉरेक्सी/ दुबलेपन की लत) और अवटुग्रंथि (थाइरॉइड ग्लैंड) की अतिसक्रियता को गिनाया।
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स्वनियमित आत्मोपचारी क्षमता
रूसी वैज्ञानिकों का कहना था कि उपवास या किसी अन्य कारण से लंबे समय तक भोजन नहीं मिलने की दशा में शरीर के तंत्रिकातंत्र (नर्वस सिस्टम) में एक प्रकार से अलार्म बजने लगता है। वह हार्मोनों और अंतःस्रावी रसों की सहायता से 'सैनोजेनेसिस' कहलाने वाली शरीर की स्वनियमित आत्मोपचारी क्षमता को जागृत कर देता है।
आधुनिक जीवनशैली के कारण हमारी यह जन्मजात क्षमता सामान्यतः दबी रहती है. उसके जागृत होने पर शरीर अपने आप को नई परिस्थितियों के अनुरूप ढालते हुए ब्लडशुगर (रक्तशर्करा), कोलेस्ट्रोल (रक्तवसा), इन्सुलिन (मधुसूदनी) या ट्राइग्लाइसरीड (उदासीन वसा) जैसे घटकों के स्तर में आवश्यक सुधार करने लगता है। साथ ही ऊर्जा की खपत भी क्रमशः घटती जाती है। श्वसनक्रिया, हृदयगति, रक्तचाप, पाचनतंत्र इत्यादि सब कुछ धीमा पड़ जाता है। उपवास की एक सबसे बड़ी विशेषता यह पाई गई है कि योग-ध्यान के समान वह भी दमा, हृदयरोग या रक्तचाप जैसी कई शारीरिक बीमारियों का भी बहुमुखी उपचार है।
हज़ारों दमा-पीड़ितों को ठीक किया
उदाहरण के लिए, रूसी डॉक्टरों का एक अध्ययन उपवास द्वारा ठीक किये गये दमा-पीड़ितों के बारे में है। चार दशकों में उन्होंने दस हज़ार से अधिक दमा-पीड़ितों को ठीक किया। दमा (अस्थमा) के रोगियों के फेफड़े की श्लेष्मा-झिल्ली में काले रंग की कोशिकाओं के होने का अर्थ वहां 'हिस्टामीन' नामक ऊतक-हार्मोन का होना है, जिसके बढ़े हुए स्राव से श्वासनलिका में सूजन आ जाती है, सांस लेने में कष्ट होता है और दमा के दौरे पड़ने लगते हैं। रूसी डॉक्टरों ने पाया कि 12 दिनों के उपचारक उपवास के बाद हिस्टामीन फेफड़ों में से ग़ायब हो जाता है और दमा के दौरे भी बंद हो जाते हैं। उनका दावा है कि उनकी यह खोज और उससे जुड़े तथ्य इससे पहले कहीं देखने में नहीं आये थे.
पुराना पड़ गया (क्रॉनिक) दमारोग एक ऐसी बीमारी है, जिसे आधुनिक चिकित्सापद्धति ठीक नहीं कर सकती, दवाओं के द्वारा वह उसे केवल दबा और कुछ समय के लिए राहत दिला सकती है। दमा के रोगियों का उपचार करने वाले डॉ. ओसीनिन का कहना है कि रूस के एक हज़ार रोगियों पर किए गए उनके एक अध्ययन ने दिखाया कि 50 प्रतिशत ऐसे रोगी, जो उपचारक उपवास के बाद स्वास्थ्यकारी आहार का ध्यान रख रहे थे, सात साल बाद भी काफ़ी बेहतर महसूस कर रहे थे। 10 से 15 प्रतिशत रोगी पूरी तरह दमा-मुक्त हो गए थे।
इस अध्ययन के लिए तत्कालीन सोवियत संघ के सभी हिस्सों से आंकड़े जमा किए गए थे, ताकि उपवास को सरकारी स्वास्थ्यनीति के साथ जोड़ा जा सके। सोवियत विज्ञान अकादमी ने भी अध्ययन के परिणामों की पुष्टि की थी। तब भी तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार ने उन्हें न तो कभी प्रकाशित होने दिया और न सरकारी स्वास्थ्यनीति का हिस्सा बनाया।
दवाइयों को छोड़ें, उपवास से नाता जोड़ें
जहां तक रूसी गणतंत्र बुर्यातिया के गोर्याचिंस्क अस्पताल का प्रश्न है, वहां सभी प्रकार के ऐसे लोग अपना इलाज़ कराने आते हैं, जो पहले किसी दूसरे अस्पताल में भर्ती रह चुके हैं।
आधुनिक तरीकों और मशीनों से उनकी जांच-परख हो चुकी है, पर कोई दवा उन्हें ठीक नहीं कर सकी। इस अस्पताल में सबसे पहले उन्हें शांतचित्त करने और आशावादी बनाने के लिए उनका मनोबल बढ़ाया जाता है। इसके बाद उनकी बीमारी के अनुसार उन्हें यह बताया जाता है कि उनका उपचार संभवतः कितने दिन चलेगा और उपवास की क्या प्रक्रिया होगी।
प्रक्रिया बिल्कुल सीधी-सादी है। डॉक्टर की देखरेख में, औसतन 12 दिनों तक, पानी के सिवाय दूसरा कुछ खाने-पीनो को नहीं मिलता। बीमारी के प्रकार और उसकी गंभीरता के अनुसार तीन सप्ताहों तक उपवास चलता है। पुरानी पड़ चुकी बीमारियों के मामले में अब तक ली जा रही दवाएं दो या तीन दिन बाद रोक दी जाती हैं। उपवास के दौरान शरीर के पोषक तत्वों में कोई विशेष कमी नहीं आती। विटामिन सी, डी, और ई तथा कुछ दूसरे चयापचय पदार्थों की मात्रा कुछ कम हो जाती है, पर उनका अनुपात किसी ख़तरनाक सीमा तक नहीं गिरता. डॉक्टर इन परिवर्तनों पर नज़र रखते हैं।
गोर्याचिंस्क अस्पताल में अपना उपचार करवा चुके दस हज़ार से अधिक लोगों की फ़ाइलें एक अभिलेखागार में सुरक्षित रखी हुई हैं। वे अधिकतर मधुमेह, दमा, उच्च रक्तचाप, जोड़ों के दर्द, किसी चर्मरोग या एलर्जी से पीड़ित थे। एक या एक से अधिक उपचारक उपवासों के बाद दो-तिहाई बीमार अपने सभी लक्षणों से मुक्त हो गए। सभी का मत है कि भोजन नहीं मिलना, यानी भूख, सबसे कठिन या कष्टसाध्य चीज़ नहीं है।
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उपवास का नाज़ुक चरण
भूख की अनुभूति दो-तीन दिन बाद काफ़ी मंद पड़ जाती है, हालांकि तीसरा दिन किसी-किसी को असह्य लग सकता है। सबसे कठिन होता है पांचवें दिन के आस-पास आने वाला एक ऐसा नाज़ुक चरण, जब रोगी की हिम्मत छूटने लगती है। इस चरण में कमजोरी, उबकाई, चक्कर आने या सिरदर्द जैसे कष्टों से जूझना पड़ता है। इस नाज़ुक चरण के साथ शरीर को ऊर्जा के अपने संचित भंडारों से काम चलाना सीखना पड़ता है। डॉक्टर मूत्र-परीक्षण द्वारा जान सकते हैं कि यह नाज़ुक चरण कब तक चल सकता है और उसका चरमबिंदु कब आ सकता है।
होता यह है कि भोजन के अभाव में रक्त में हाइड्रोजन अयनों की सांद्रता (कॉन्सनट्रेशन) बदलने लगती है। इस सांद्रता के ऋणात्मक (नेगेटिव) लॉगरिथम (लॉग) वाली संख्या (पीएच वैल्यू) बताती है कि रक्त के अम्लीय और क्षारायीपन के बीच संतुलन है या नहीं। पीएच7 होने का अर्थ है कि दोनों के बीच संतुलन है। पीएच7 से कम होने का अर्थ है कि रक्त अम्लीय (ऐसिडिक) हो रहा है। पीएच7 से अधिक होने का अर्थ है कि रक्त क्षारीय (बेसिक, अल्कलाइन) बन रहा है। शरीर की जैवरासायनिक प्रणाली के ठीक से काम करने के लिए रक्त किंचित क्षारीय होना चाहिए। उसकी पीएच संख्या 7.35 और7.45 के बीच होनी चाहिए। यह संख्या 7.8 से अधिक या 6.8 से कम होना जानलेवा ख़तरे की घंटी के समान है। उपवास इसीलिए किसी डॉक्टर की देखरेख में होना चाहिए।
यह भी देखा गया है कि उपवास के नाज़ुक दौर में किसी दर्द से जुड़ी बीमारी कुछ देर के लिए ज़ोरों से उभर सकती है। अधकपारी (आधाशीशी) कहलाने वाले सिरदर्द या जोड़ों के दर्द वाले गठिया रोग के प्रसंग में यह संभव है। लेकिन ऐसे दर्द 24 से 36 घंटों में दूर हो जाते हैं। नाज़ुक दौर का अर्थ है कि यकृत गहरे परिवर्तनों द्वारा शरीर का शुद्धीकरण कर रहा है।
सबसे बड़ा परिवर्तन
एक सबसे बड़ा परिवर्तन है शरीर के तीन भीतरी ऊर्जा-स्रोतों-ग्लूकोज़ (द्राक्ष-शर्करा), प्रोटीन और लिपिड (वसा और वसा में घुलनशील कोलेस्टेरोल, विटामिन इत्यादि) का दोहन। शरीर सबसे पहले मस्तिष्क की सक्रियता के लिए ग्लूकोज़ के भंडार को खपाता है, जो प्रायः एक ही दिन में चुक जाता है। तब शरीर प्रोटीनों को, यानी मुख्यतः मांसपेशियों को गला कर ग्लूकोज़ बनाता और उससे ऊर्जा प्राप्त करता है। तीसरे स्रोत के रूप में शरीर वसा और लिपिडों को विघटित करने लगता है। इस क्रिया के सह-उत्पादों के रूप में तथाकथित 'कीटोन बॉडीज़' बनते हैं। वे ऊर्जा को यकृत से मस्तिष्क सहित अन्य ऊतकों तक पहुंचाते हैं।
गहरे परिवर्तनों के इस दौर के बाद शरीर अपना संतुलन काफी कुछ स्वयं प्राप्त कर लेता है। मालिश, एनिमा (जुलाब) और वाष्पस्नान (साउना) जैसे कुछेक प्रयोजन शरीर की आंतरिक साफ़-सफ़ाई, हानिकारक पदार्थों के विसर्जन और उपवास को झेलने में आसानी लाते हैं। रूसी डॉक्टर हर दिन दो-तीन-घंटे चलने-फिरने और व्यायाम करने की भी सलाह देते हैं। उपवास के कठिन दिन बीत जाने के बाद रोगी अपने आप को बहुत हल्का-फुल्का, प्रसन्नचित्त और उमंगपूर्ण महसूस करते हैं।
औषधि उद्योगों की उदासीनता
रूसी डॉक्टर यह तो दिखा सके कि उपवास कई शारीरिक और मानसिक बीनारियों का अब तक उपेक्षित रहा एक बहुमुखी उपचार है। पर वे पूरी बारीक़ी से यह नहीं बता सके कि 'सैनोजेनेसिस' और उसकी कार्यविधि मूलतः क्या है? सोवियत काल की रूसी कम्युनिस्ट सरकारों को यह सब जानने की शोध-सुविधा प्रदान करने में कोई दिलचस्पी भी नहीं थी। यूरोप या पश्चिमी जगत के औषधि उद्योगों को भी इसमें कोई दिलचस्पी न कभी थी और न आज है, क्योंकि उनका लक्ष्य दवाएं बेच कर अधिक से अधिक लाभ कमाना है। लोग यदि बिना मंहगी दवाओं और मशीनों के, और बिना कुछ खाए-पीए, मात्र उपवास करके ठीक होने लगे, तब तो दवा कंपनियों के ही भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। एलोपैथिक दवा-निर्माता योग-ध्यान, होम्योपैथी, आयुर्वेद और निसर्गोपचार (नैचुरोथेरैपी) जैसी विधाओं की बढ़ती हुई लोकप्रियता से पहले से ही जल-भुन रहे हैं।
उदाहरण के लिए, मतसर्वेक्षणों के अनुसार 15-20 प्रतिशत जर्मनों ने कभी न कभी उपवास किया है, हालांकि वह कोई रोगोपचारी उपवास नहीं था। जर्मनी में ही 1920 में स्थापित यूरोप का संभवतः सबसे पुराना ऐसा सैनेटोरियम है, जहां हर साल दो हज़ार लोग उपचारक उपवास करने आते हैं।
वे अधिकतर उच्च रक्तचाप, मधुमेह या मोटापे जैसी पुरानी पड़ गयी बीमारियों से पीड़ित होते हैं। रूस की बाइकाल झील के समान ही दक्षिण जर्मनी की सुरम्य झील 'लेक कांस्टंस' के पास स्थित इस सैनेटोरियम में जिस विधि से उपवास करवाया जाता है, उसे उसके संस्थापक ओटो बूख़िंगर ने सौ साल पूर्व प्रतिपादित किया था।
जर्मनी में उपवास द्वारा बढ़ता उपचार
बूख़िंगर अपने समय की जर्मन सेना के एक डॉक्टर हुआ करते थे। जोडो़ं के दर्द के कारण वे 1918 में पहियाकुर्सी से बंध गए। जब उस समय की ज्ञात डॉक्टरी विधियां काम नहीं आई तो उन्होंने उपवास को आजमा कर देखने का निश्चय किया। दो बार के उपवासों के बाद वे पूरी तरह ठीक हो गए। अपने अपचार के लिए उन्होने जो उपवास विधि सोची थी, इस सैनेटोरियम में वही विधि आज भी प्रचलित है। हर उपचार एक से तीन सप्ताह तक चलता है। हर दिन दो बार 250 कैलरी के बराबर कोई हल्का सूप (शोरबा) या किसी फल का ताज़ा रस दिया जाता है। इससे उपवास को झेलना थोड़ा आसान हो जाता है। उपवास की अवधि बीत जाने के बाद रोगियें से कहा जाता है कि उन्हें बहुत सावधानीपूर्वक और धीरे-धीरे फिर से खाना-पीना शुरू करना चाहिए, वर्ना उपवास के सारे लाभ बेकार हो जाएंगे।
क़रीब डेढ़ दशक से बर्लिन स्थित यूरोप के सबसे बड़े विश्वविद्यालयी अस्पताल 'शारिते' में भी उपवास के लाभों पर काम हो रहा है। जर्मनी के लगभग एक दर्जन दूसरे विश्वविद्यालयी अस्पताल भी 'शारिते' का अनुकरण करने लगे हैं। इन अस्पतालों में उपवास द्वारा उपचार के साथ-साथ उपचारक उपवास पर वैज्ञानिक शोधकार्य भी हो रहा है। ऐसे ही एक शोधकार्य में पाया गया कि कई दिनों के उपवास के दौरान शरीर में प्रसन्नताकारी हार्मोन 'सेरोटोनीन' की मात्रा बढ़ जाने का स्वास्थ्यलाभ पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। मधुमेह के उपचार में प्रमुख भूमिका वाले 'इन्सुलिन रिसेप्टरों' की कार्यकुशलता बेहतर हो जाती है। शोधकर्ताओं को दुख इस बात का है कि उपवास पर शोधकार्य के लिए न तो पैसा मिलता है और न प्रशंसा।
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उपवास की सीमा
उपवास के य़दि अनेक लाभ हैं, तो यह भी सच है कि एक सीमा के बाद वह प्राणघातक भी सिद्ध हो सकता है। यह सीमा कहां है? कब आती है? इसे जानने के प्रयोग नैतिक कारणों से मनुष्यों पर नहीं किए जा सकते। जानवरों के साथ किए गए प्रयोगों से कई उत्तर अवश्य मिले हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिणी ध्रुव पर रहने वाले सम्राट (एम्पेरर) पेंगुइनों में नर जब अंडे सेता है और समुद्र में मछलियों के शिकार से अपनी मादा के वापस लौटने की बाट जोह रहा होता है, तब वह चार महीनों तक बिना कुछ खाये रह सकता है।
फ्रांस के 'सीएनआरएफ़' शोध संस्थान के वैज्ञानिकों ने उनके उपवास की अंतिम सीमा जानने का प्रयास किया और चकित रह गए। उन्होंने पाया कि नर सम्राट-पेंगुइन, उपवास-काल के अधिकांश समय, केवल चार प्रतिशत ऊर्जा अपनी प्रोटीनों से प्राप्त करते हैं और 96 प्रतिशत ऊर्जा शरीर में संचित वसा (चर्बी) से जुटाते हैं. यानी, उनका शरीर परिस्थितियों के अनुसार प्रोटीनों का बड़ी कंजूसी से उपयोग करता है। प्रोटीन मासपेशियों में होते हैं और हृदय भी एक मांसपेशी ही है, इसलिए प्रोटीन-भंडार यदि आधे ख़ाली हो गए, तो मृत्यु तय है।
शरीर के ऊर्जा-स्रोतों की भूमिका
हम पहले देख चुके हैं, ग्लूकोज़ वाली ऊर्जा का संचित भंडार उपवास के पहले 24 घंटों में ही चुक जाता है। उसके बाद शरीर प्रोटीनों से ग्लूकोज़ बना कर काम चलाता है। तीसरे चरण में वह मुख्तः वसा को जलाता है। शरीर में संचित वसा की मात्रा के अनुसार यह चरण लंबे समय तक चल सकता है। देखा यह गया है कि सम्राट-पेंगुइनों में यह चरण 100 दिनों तक चल सकता है। लेकिन, ऊर्जा के सभी स्रोतों का भंडार 80 प्रतिशत तक खाली होते ही उन्हें जल्द से जल्द आहार मिलना चाहिए, वर्ना बहुत देर हो जाएगी।
यह जानने के लिए कि क्या सभी जंतुओं पर यही नियम लागू होता है, फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने चूहों के साथ प्रयोग किए, भले ही चूहे उपवासी प्राणी नहीं होते। प्रयोग के दौरान उनका हर दिन वज़न लिया गया और मूत्र-परीक्षण किया गया। परिणाम पेगुइनों से काफ़ी मिलते-जुलते निकले। चूहे भी दूसरे चरण में प्रोटीनों को बहुत कंजूसी से खपा रहे थे। यानी उपवास की अवस्था में लंबे समय तक जीवित रहने के लिए ऊर्जा-स्रोतों के कंजूसी-भरे अपयोग की प्राकृतिक रणनीति सभी प्राणियों में संभतः एक जैसी है।
उपवास विकासवाद का हिस्सा है
फ्रांसीसी वैज्ञानिकों के अनुसार, यह समानता पृथ्वी पर के सबसे आदिकालीन प्राणियों में भी रही होनी चाहिए। हम मनुष्यों में भी यह प्राकृतिक क्षमता है। दूसरे शब्दों में, लंबा उपवास, अपनी सीमाओं के भीतर ख़तरनाक़ नहीं है, बल्कि विकट परिस्थितियों में भोजन के अभाव को झेलने की एक अनुकूलन-प्रक्रिया है। वह पृथ्वी पर की प्रजातियों के उस क्रमिकविकास (इवल्यूशनरी प्रॉसेस) का हिस्सा है, जिसमें हर प्रजाति सूखे और अकाल या लंबे समय तक कोई शिकार नहीं मिल पाने पर भी जीवित रहने के समर्थ होना चाहती है।
वैज्ञानिक अध्ययनों ने दिखाया है कि 1.70 मीटर ( 5फुट 7 इंच) लंबे और 70 किलो भारी किसी व्यक्ति के शरीर में 15 किलो के बराबर वसा (चर्बी) होती है। स्वास्थ्य अच्छा होने पर 40 दिनों तक शरीर उससे काम चला सकता है। इतिहास में हमेशा ऐसा नहीं रहा है कि सब को दिन में दो या तीन बार पेटभर खाना मिलता रहा हो। आज स्थिति यह है कि अधिकतर बीमारियां खाने की कमी से नहीं, अधिकता और विविधता से हो रही हैं। भोजन की अधिकता लाखों-करोड़ों वर्षों के विकासक्रम से बने हमारे आनुवंशिक ढांचे के विपरीत है। हमारे जीन नियमित भोजन की अपेक्षा भोजन के अभाव को झेलने के अधिक अभ्यस्त रहे हैं। समय-समय पर उपवास करते रहना हमारी आनुवंशिक आवश्यकता है।
अगले पेज पर जानिए कैंसर के लिए भी उपयोगी है उपवास
कैंसर के उपचार में उपवास की उपयोगिता
इटली के वाल्टर लोंगो जरावस्था (जेरोन्टोलॉजी) के अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक हैं। वे अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में कैंसर की, तथा 1906 में जर्मन डॉक्टर आलोइस अल्त्सहाइमर द्वारा पहचाने गये उन्हीं के नाम वाले- वृद्धावस्था के अल्त्सहाइमर (अल्जाइमर) रोग की रोकथाम के उपायों पर शोध कर रहे हैं।डॉ. लोंगो ने तय किया वे भी अपने कार्यक्षेत्र में उपवास की उपयोगिता का पता लगाएंगे। वे सोच रहे थे कि उपवास यदि सभी प्रकार के हानिकारक, यहां तक कि विषाक्त पदार्थों से भी शरीर को बचाता है, तो हो सकता है कि वह कैंसर के इलाज की कीमोथेरैपी वाली दवाओं के हानिकारक उपप्रभावों (साइड-इफ़ेक्ट) से भी शरीर की रक्षा करता हो।
डॉ. लोंगो ने कैंसर-पीड़ित कई चूहे लिए और उन्हें दो समूहों बांट दिया। एक समूह को तो सामान्य आहार मिलता रहा, जबकि दूसरे समूह को 49 घंटों तक भूखा रखा गया। बाद में दोनों समूहों के सभी चूहों को कीमोथेरैपी वाली दवाओं के इंजेक्शन दिए गए। दवाओं की मात्रा मनुष्यों के लिए स्वीकृत मात्रा से तीन गुनी अधिक रखी गई। अपेक्षा यही की जा रही थी कि इतनी अधिक मात्रा का घातक परिणाम होगा। पर, आश्चर्य कि सभी उपवासी चूहे तो जीवित रहे, पर अधिकांश ग़ैर-उपवासी चूहे मर गए।
भूखे चूहे जीवित रहे, अघाये चूहे मर गए
यह प्रयोग दो अलग-अलग प्रयोगशालाओं में दुहराया गाया, किंतु परिणाम हर बार एक जैसा ही रहा। जिन चूहों को भूखा रखा गया था, वे चलने-फिरने में सामान्य और स्वस्थ दिख रहे थे। उनकी त्वचा ओर बाल भी पूर्णतः स्वस्थ बने रहे। उनके ऊतकों को कोई क्षति नहीं पहुंची थी और न ही बौद्धिक क्षमता में कोई गिरावट देखी गई। दूसरी ओर, जिन चूहों को सामान्य आहार मिलता रहा, उन में से केवल 35 प्रतिशत जीवित बचे थे। वे बहुत सुस्त, बीमार और डरे-सहमे किसी कोने में दुबके हुए थे। जांच करने पर पता चला कि उनके मस्तिष्क व हृदय कीमोथेरैपी वाली दवाओं से क्षतिग्रस्त हो गये थे। अमेरिकी मीडिया ने इस ख़बर को उछालते हुए शीर्षक दिया, 'उपवास कीमोथेरैपी के हानिकारक प्रभावों से बचाता है'
कीमोथेरैपी की सबसे बड़ी कमी यह है कि उसकी दवाओं से केवल कैंसर-ग्रस्त कोशिकाएं ही नहीं मरतीं, बहुत-सी दूसरी कोशिकाओं, ऊतकों, हड्डियों इत्यादि को भी नुकसान पहुंचता है। सिर के बाल भी झड़ जाते हैं। अमेरिका में लॉस एंजेलेस का 'मॉरिस 'कॉम्प्रिहेन्सिव कैंसर सेंटर' वहां का एक सबसे बड़ा कैंसर अस्पताल है। उसने डॉ. लोंगो के प्रयोगों को कुछ गंभीरता से लेते हुए अपने यहां भी कैंसर के रोगियों के साथ एक ऐसा ही प्रयोग शुरू किया, हालांकि अब तक बहुत कम ही रोगियों को इस प्रयोग में शामिल किया गया है। किसी को केवल 24 घंटे तक उपवास करवाया जाता है, तो किसी को 48 घंटे तक। फिलहाल केवल यह देखने का प्रयास है कि उपवास कैंसर-पीड़ितों के लिए कहीं हानिकारक तो नहीं है।
कीमोथेरैपी और उपवास
लॉस एंजेलेस की ही स्तन-कैंसर से पीड़ित एक महिला जज को कुल पांच बार कीमोथेरैपी करवानी थी। उन्हें मॉरिस सेंटर का काम इतना आधे मन का लगा कि पहली कीमोथेरैपी से पहले उन्होने अपने मन से ही पांच दिनों तक उपवास रख लिया। इससे कीमोथेरैपी के बाद उन्हें काफ़ी अच्छा महसूस हुआ। लेकिन अपनी निजी महिला डॉक्टर की सलाह मान कर कीमोथेरैपी की बाद की दो तारीख़ों से पहले उन्होंने उपवास नहीं रखा और पाया कि उनकी तबीयत बिगड़ गई थी। इसलिए अंतिम दो तारीखों से पहले उन्होंने दुबारा उपवास रखा और दोनों बार कहीं बेहतर महसूस किया। इससे यही पता चलता है कि उपवास करने से कैंसर भले ही न ठीक हो, पर कैंसर ठीक करने की कीमोथेरैपी के हानिकारक प्रभावों को काफ़ी कम किया जा सकता है।
प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है? उपवास रखने से कीमोथेरैपी की कारगरता क्या बढ़ जाती है? डॉ. लोंगो का कहना है कि उपवास शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं की बेहतर रक्षा करता है, न कि कीमोथेरैपी की कारगरता को बढ़ाता है। कोशिकाओं के कार्यकलाप उनके जीन नियंत्रित करते हैं। डॉ. लोंगो ने हृदय, यकृत ओर कुछ अन्य पेशियों की कोशिकाओं और उनके जीनों के संबद्ध डीएनए की जांच की।
उन्होंने पाया कि दो दिन के उपवास के बाद कुछ जीन कम तो कुछ ज़्यादा सक्रिय दिखते हैं, किंतु कोशिकाओं में आमूल परिवर्तन आ जाता है। जीन स्वस्थ कोशिकाओं को 'आत्मरक्षात्मक' बना देते हैं। यह सब इस तेज़ी ओर गहराई से होता है, मानो जीनों को लंबे समय से याद है कि एक निश्चित समय तक भोजन के अभाव में उन्हें आत्मरक्षा के लिए कोशिकाओं क्या आदेश देना चाहिए।
तीन अरब वर्षों के अनुभव
डॉ. लोंगो का कहना है कि पृथ्वी पर जीवन के विकास के पिछले तीन अरब वर्षों के अनुभवों से सभी प्रणियों के जीनों ने सीखा है कि ज़रूरत पड़ते ही कोशिकाओं को आत्मरक्षक उपायों के लिए किस तरह तैयार करना चाहिए। शरीर में ग्लूकोज़ और ऊर्जा के अन्य सीमित भंडारों को यथासंभव किस तरह बनाये रखा जा सकता है। हर कीमोथेरैपी से पहले उपवास करने पर वह, किसी प्रतिक्षेपक्रिया (रिफ्लेक्स ऐक्शन) की तरह, हमारे जीनों को याद दिला देता है कि अपनी कोशिकाओं को उन्हें अब क्या आदेश देना है। कीमोथेरैपी जीनों में बसे आनुवंशिक अनुभवों का हिस्सा नहीं होने से हमारे जीन उन्हें नहीं, केवल उपवास को पहचान सकते हैं।
डॉ. लोंगो के अनुसार, उपवास करने से केवल स्वस्थ कोशिकाएं ही आत्मरक्षात्मक बनती हैं। कैंसर-ग्रस्त कोशिकाएं आत्मरक्षात्मक नहीं बन सकतीं।वे एक ऐसे आनुवंशिक उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) से गुज़री होती हैं, जिससे उनके जीनों की आत्मरक्षक विकासवादी याद मिट चुकी होती है। डॉ. लोंगो का यह भी कहना है कि कैंसर की कोशिकाएं उपवास-जनित परिस्थितियों से घृणा करती हैं....
उपवास कैंसर के लिए अभिशाप है
उपवास के कारण कैंसर-ग्रस्त कोशिकाओं को मिल सकने वाले ग्लूकोज़ की मात्रा इतनी घट जाती है कि ऊर्जा के अभाव में वे अपनी संख्या या तो बढ़ा नहीं पातीं या कीमोथेरैपी के प्रति इतनी असुरक्षित और भेदनीय बन जाती हैं कि दवाओं से मरने लगती हैं, इसका अर्थ यही हुआ कि कीमोथेरैपी के बिना भी उपवास रखना कैंसर के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है। उपवास रखने से कैंसर के शमन में अप्रत्यक्ष लाभ मिलता है।
क्या अब भी उपवास को एक धार्मिक (अंध)विश्वास मान कर उसकी उपेक्षा करना उचित होगा? इतना ज़रूर है कि तीज-त्योहारों के समय एक-दो दिन के उपवास और उसके बाद पुनः जम कर खाने-पीने से कुछ नहीं मिलेगा। उपवास भी अपने शुभा आशीर्वाद के लिए समय मांगता है और यह समय वह दीर्घायु बना कर स्वयं देता भी है। यह बात बहुत पहले ही सिद्ध हो चुकी है कि कम खाने और उपवास करने से जीवन-प्रत्याशा बढ़ती है।
यह लेखक के निजी विचार हैं। चिकित्सकों की देखरेख में ही उपवास के सही लाभ पाए जा सकते हैं।