भगवतीचरण वर्मा का यह उपन्यास समाज की दो समांतर विचारधाराओं वैराग्य और सांसारिकता का वर्णन है। दोनों के बारे में विचित्र बात है कि दोनों एक ही समाज में जन्म लेती है और दोनों का एक दूसरे से विरोध है। पशु वैराग्य नहीं लेते। ये दोनों मनुष्य के लिए बने हैं या मनुष्य ने इन दोनों को बनाया है। एक के रहते दूसरे का अस्तित्व असंभव है। दोनों में विरोध है। विरोध होते हुए भी दोनों मनुष्य के बीच ही जीवित हैं। वस्तुत: मनुष्य ने ही उन्हें जीवित रखा है।
चित्रलेखा उसी समाज का हिस्सा जिसका हिस्सा कुमारगिरी है। जिस सभा में चित्रलेखा अपने नृत्य से सभासदों का मनोरंजन करती है, उसी सभा में कुमारगिरि शास्त्रार्थ करने आते हैं। चित्रलेखा के ये वाक्य उसके विलासी होने की प्रवृत्ति को तर्कपूर्ण ठंग से सही ठहराते हैं - 'जीवन एक अविकल पिपासा है। उसे तृप्त करना जीवन का अंत कर देना है।' और 'जिसे तुम साधना कहते हो वो आत्मा का हनन है।' वह कुमारगिरि के वैराग्य का यह कहकर विरोध करती है कि शांति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है और रहा सुख, तो उसकी परिभाषा एक नहीं है।
कुमारगिरि तर्क देते हैं - 'जिसे सारा विश्व अकर्मण्यता कहता है, वास्तव में वह अकर्मण्यता नहीं है। क्योंकि उस स्थिति में मस्तिष्क कार्य किया करता है। अकर्मण्यता के अर्थ होते हैं जिस शून्य से उत्पन्न हुए हैं उसी में लय हो जाना। और वही शून्य जीवन का निर्धारित लक्ष्य है।'
उपन्यास में घोषित रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही विवेचना है लेकिन उपन्यास इस बात को भी स्पष्ट करता है कि हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फिर छल।
जब कुमारगिरि और चित्रलेखा टकराते हैं तो दो विपरीत विचारधाराएँ टकराती हैं और एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। संसार और वैराग्य में द्वंद्व होता है और प्रखर होकर कई रूपों में सामने आता है। कहीं वो प्रेम बनता है, तो कहीं वासना, कहीं घृणा बनता है तो कहीं छलावा। चित्रलेखा के विलासी होने के पीछे उसके अपने तर्क हैं और कुमारगिरि के विरागी होने के पीछे उसके अपने तर्क है। जीत-हार किसी की नहीं होती क्योंकि तर्क का अंत नहीं है।
हालाँकि उपन्यास की शुरूआत पाप और पापी की खोज, निर्धारण और उसे परिभाषित करने से होती है और एक तटस्थ उत्तर और परिणाम पर समाप्त होती है कि पाप और पुण्य कुछ नहीं होता ये परिस्थितिजन्य होता है। हम ना पाप करते हैं ना पुण्य, हम वो करते हैं जो हमें करना पड़ता है।
उपन्यास में घोषित रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही विवेचना है लेकिन उपन्यास इस बात को भी स्पष्ट करता है कि हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फिर छल।
उपन्यास की भाषा विलक्षण है। तर्कों के जटिल होने के कारण भाषा अत्यंत क्लिष्ट है और देशकाल-वातावरण के अनुरूप है। समग्र रूप से चित्रलेखा संपूर्ण मानव समाज पर एक प्रहार है जिसके दो चेहरे हैं।