गोबर से लिपा आँगन, मिट्टी की वह महक, हवा के हल्के झोंकों से लहरा उठते खेत और गलियों में गिल्ली-डंडा खेलते, सायकिल की ट्यूब को पगडंडियों पर लेकर दौड़ते बच्चे, यह दृश्य फिल्मों से वर्षों पहले ही नदारद हो चुके हैं। उसकी जगह गढ़ा गया है अपनी इच्छाओं का गाँव, जो वास्तविकता से कोसों दूर है।
साहित्य में भी उस खालीपन को गहराई से महसूस किया जाने लगा कि गाँवों का वैसा वर्णन अब लुप्त-सा हो चला है, लेकिन उस रेगिस्तान में पानी की एक धार की तरह है प्रस्तुत कहानी-संग्रह 'कथा में गाँव'। अगर कहा जाए कि गाँवों को अं:रात्मा से महसूसने की एक कवायद है यह संग्रह, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
'कथा में गाँव' एक ऐसा कहानी संग्रह है, जिसमें गाँव की ओर लौटने की हूक उठती है। संग्रह की कहानियों में देश के लगभग हर अंचल को समेटने की कोशिश की गई है। संवाद प्रकाशन की यह पुस्तक सुभाषचंद्र कुशवाहा द्वारा संपादित की गई है, जिसमें मैनेजर पांडेय ने सलाहकार के रूप में अपना सहयोग दिया है।
इस संग्रह में बिहार, मध्यप्रेश, उत्तरांचल, उत्तरप्रेश, छत्तीसगढ़ राज्यों की आँचलिकता को उभारती हुई कहानियाँ हैं। मिथिलेश्वर की 'छूँछी', राकेश कुमार की हाँका', जयनंदन की 'विषवेल', 'नवजात (क)' कथा' आदि कहानियों में बिहार की समस्त पृष्ठभूमि को समेटने का प्रयास किया गया। इसमें न केवल बिहार की सामाजिक परिस्थितियों, बल्कि यहाँ की राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियों का भी वास्तविक वर्णन किया गया है।
'कथा में गाँव' एक ऐसा कहानी संग्रह है, जिसमें गाँव की ओर लौटने की हूक उठती है। संग्रह की कहानियों में देश के लगभग हर अंचल को समेटने की कोशिश की गई है। संवाद प्रकाशन की यह पुस्तक सुभाषचंद्र कुशवाहा द्वारा संपादित की गई है,
'विषबेल' कहानी में गाँव में जातिवाद के नाम पर जो विषवेलें बो दी जाती हैं, उसका बखूबी चित्रण हुआ है। जातिवाद की लडा़ई में अंधे होकर लोग कैसे अपनों का भी खून बहाने से नहीं हिचकते हैं। ऐसी भयावह परिस्थितियों से रू-ब-रू हो रहे हमारे गाँव को दर्शाने का सफल प्रयास किया गया है।
संग्रह की प्रत्येक कहानी चाहे वह संजीव की 'प्रेरणास्त्रोत' हो, हरि भटनागर की 'कामयाब', मैत्रेयी पुष्पा की 'उज्रदारी', एस.आर. हरनोट की 'मुट्ठी में गाँव' या फिर रत्नकुमार सांभारिया की 'बूढ़ी', हर कहानी में आँचलिकता की खुशबू पाठकों का मन मोह लेगी। जिनके अंदर गाँव की ओर लौटने की इच्छा बलवती होने लगे, वह एकबारगी इन कहानियों के माध्यम से उसे महसूस कर सकेगा।
भाषा की दृष्टि से भी आँचलिकता की सौंधी सुगंध कहानियों में महसूस होती है। आँचलिकता की वह खूशबू, जो रेणु की रचनाओं को पढ़ने से पाठकों को बरबस ही अपनी ओर खिंचती थी, वैसी ही महक इस संग्रह की कहानियों में मिलती है। गाँवों को प्रस्तुत करने का वह ठेठ अंदाज, जिसमें कोई भी आडंबर नहीं, न ही जबरन बनाई गई परिस्थितियाँ। कहानियाँ भाषा की लय के साथ तालमेल बिठाती हुई, अपनी सहज गति से बहती जाती हैं।
पुस्तक : कथा में गाँव प्रकाशन : संवाद प्रकाशन मूल्य : 110 रु.