धूप को पकड़ लेने की भोली चाह हर बाल मन में होती है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ समझ विकसित होती है और उस अबोध चाह पर हँसी आती है। लेकिन मन के गहरे आँगन में कहीं यह भाव हमेशा छुपा रहता है अँजुरी भर अभिलाषाओं की धूप कभी नहीं खाली हो।
आकर्षक शीर्षक 'अँजुरी अँजुरी धूप' के साथ सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार चंद्रसेन विराट के दोहा-संग्रह ने साहित्य जगत में दस्तक दी है ।
नन्हे-नन्हे दोहों में छुपे गहरे-गहरे भाव और गहरी-गहरी पंक्तियों में छुपे नन्हे-नन्हे विचार। एक अद्भुत संगम के साथ काव्य के तमाम पैरामीटर्स का पालन करते ये दोहे असीम रचनात्मक सुख देने में समर्थ हैं।अपने चुस्त, चुटीले, सटीक और गूढ़ दोहों के साथ पुस्तक न सिर्फ पठनीय बन पड़ी है अपितु जीवन के कई रोचक पहलुओं पर टिप्पणी करने के लिए संग्रहणीय भी है।
हरे-हरे लहरा रहे भरे धान के खेत,
ठंडक पाती देखकर आँखें हृदय समेत।
इन दोहों में हमारे इर्द-गिर्द बिखरा जटिलताओं से भरा जीवन है और जीवन के सौंदर्य और सचाई का भी बखूबी वर्णन है। यहाँ अनुभूतियाँ हैं, चुनौतियाँ हैं और दर्शन और यथार्थ भी।
पुस्तक में जीवन के बहुत-बहुत छोटे लेकिन अहम लम्हों पर पिरोए बेजोड़ दोहे भी हैं और मृत्यु का शाश्वत सच उगलते कठोर हथोड़े भी।
निश्चित सूर्योदय यहाँ निश्चित उसका अस्त,
निश्चितता के नियम से, जन्म-मरण भी ग्रस्त।
विराट जी समयानुसार नवोदित कवि हृदय पाठक को भी सीख देते चलते हैं -
देर लगेगी धैर्य रख, छू पाएगा मर्म
आते आते आएगा यह कविता का कर्म
और इससे भी अहम वे टिप्स भी देते हैं
भाषा, शैली, कथ्य का विशिष्ट अवदान
इनका सम्यक मेल ही है कवि की पहचान।
कहना न होगा कि विराट जी के दोहों में भाषा, शैली और कथ्य का सम्यक मेल सुस्पष्ट नजर आता है।
भाषा बरसों में सधे, शैली दशकों बाद,
नाम बिना रचना पढ़े, कवि आए खुद याद।
निश्चित रूप से विराट उस मुकाम तक पहुँच चुके हैं जहाँ किसी रचना के जिक्र भर से उनकी स्मृति ताजा हो जाए। इन दोहों में जीवन और समाज की शाश्वत उलझनें कवि ने सहजता से सुलझा कर रख दी।
परिभाषाएँ लाख दें, पाप पुण्य की आप
मन माने तो पुण्य है, मन माने तो पाप।
इतना सरल फलसफा है पाप पुण्य का और हम हैं कि हर कदम पर इन्हीं दो शब्दों से हैरान नजर आते हैं। विराट जी के दोहों में कल्पना का मोहक अभिस्पर्श है और चित्रात्मकता की उजली झलक।
दिया जला तो सूर्य से बोला - ढलती शाम,
मैं जल लूँगा रात भर आप करें विश्राम।
पुस्तक में वर्णित दोहे सिर्फ दोहे नहीं हैं, इनमें रिश्ते, फूल, बच्चे, चिड़िया, प्रकृति, राजनीति, साहित्य, संगीत, भाव-मनोभाव, इच्छा, अभिलाषा, रोटी, जंगल, धर्म, चिंतन, नदियाँ, ईश्वर, छल, कपट, ईर्ष्या, मोहब्बत सब एक अनोखे कुशल अंदाज में आपके समक्ष आते हैं और एक दीप्तिमान मोती थमा कर आगे बढ़ जाते हैं।
अर्से से रूठी नहीं हुईं नहीं नाराज
गुस्से में सुंदर लगी तुम्हें मनाऊँ आज।
लगती हो तुम आजकल दुबली, थकी, उदास
मेरी मानो छोड़ दो ये निर्जल उपवास।
उक्त कोमल महीन दोहे मन को भीना-भीना मौसम देते हैं वहीं
लोकतंत्र की छाँव में तेज लग रही धूप
कहीं देश का रूप यह कर दे नहीं कुरूप।
धन बल उस पर बाहुबल तंत्र हुआ लाचार,
दोनों बल के बल लिया जनबल का आधार व्यापार।
और
गरिमा अनुशासन नहीं शाब्दिक स्वेच्छाचार
यह संसद है देश की,या मच्छी बाजार ।
जैसे दोहे वर्तमान राजनीति पर गंभीर चिंतन स्फुरित कर जाते हैं। कवि ने साहित्य के 'व्यापार' को भी नहीं बख्शा -
माल बनाया काव्य को, बना कला उत्पाद
बहुत धड़ल्ले से बिका, विज्ञापन के बाद।
वास्तव में दोहा बड़ी आकर्षक और चुस्त विधा है जिसके जरिए न्यूनतम शब्दों में गहन गंभीर बात को सहजता से रखा जा सकता है।
खुद कवि के शब्दों में कहें तो
थोड़े में ज्यादा कहें, सभी दृष्टि से ठीक
दोहा मारक छंद है, सीधा और सटीक।
विराट के दोहों में ही पुस्तक की समीक्षा भी निहित है । उन्हें पढ़ते हुए समीक्षक को दिमाग के अश्व दौड़ाने नहीं पड़ते और उसके सामने आ जाती है ये पंक्तियाँ।
कम शब्दों के चयन से रचना बनती ठोस
कहने का कौशल भी देता अर्थ परोस।
सचमुच विराट जी का अपनी बात कहने का कौशल ही उन्हें विराट बनाता है। उनके काव्य कौशल ने अर्थों को इतने सलीके से परोसा है कि कथ्य स्वाद कहीं भीतर तक तृप्त कर जाता है।
यह बात और है कि विराट स्वयं को इतना ही परिभाषित करते हैं
हमें कहे मत कवि बड़ा कहे न स्वर सम्राट,
हम वामन हैं जानते केवल नाम विराट।
पुस्तक संवाद और संवेदना के विलक्षण संयोग से रची आत्मीय प्रस्तुति है। बस खटकती है तो सिर्फ यही बात कि आरंभ में कवि की मन की बात पुस्तक का प्रतिनिधित्व करती हुई होती तो पुस्तक संपूर्ण हो जाती। चंद्रसेन विराट के खाते में कई मोहक ग़ज़ल कृतियाँ, पुस्तकें, सम्मान दर्ज हैं। यह पुस्तक उनकी सृजन यात्रा का आकर्षक शिखर सिद्ध होगी।
अँजुरी में भरकर इस धूप को बार-बार सूँघने का जी करता है।