क्रांति-कथा : देश की आज़ादी के लिए जीवन न्यौछावर करने वाले वीरों की प्रेरक गाथाएं
सोमवार, 25 जुलाई 2022 (16:15 IST)
रवीन्द्र शुक्ला
उम्र के 95वें पड़ाव पर पहुंचे मध्य प्रदेश के पूर्व एडवोकेट जनरल और वरिष्ठ समाजसेवी आनंद मोहन माथुर की दो कृतियों का शनिवार 23 जुलाई को इंदौर में विमोचन हुआ। यह इसलिए तो महत्वपूर्ण है ही कि इस उम्र में भी उनका जोश, जुनून और जज्बा विलक्षण है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह ऐसे प्रेरक प्रसंगों से भरपूर है, जो अब तक या तो अनजान रहे हैं या विस्मृत कर दिए गए हैं।
आज के माहौल में उन्हें अपनी लेखनी से रोचक वृत्तांतों के रूप में पेश कर माथुर जी ने पुनः सिद्ध किया है कि उनमें अन्याय के खिलाफ संघर्ष और सामाजिक चेतना जागृत करने की अदम्य इच्छा आज भी है।
यह दो कृतियां हैं:- क्रांति-कथा और गांधीनामा। इनमें से क्रांति-कथा आजादी के दीवाने उन भारतीय शहीदों की कथनी और करनी के वर्णन है, जिनसे आज की पीढ़ी अपरिचित है। जैसे; भाई मुंगी सिंह लाहौर में रहते थे। वे अंग्रेजो के खिलाफ बगावत करने ईरान जाते और वापस आ जाते। वह कई साल पकड़े नहीं गए। लेकिन आखिरी बार जब पकड़े गए तो उन्हें सुबह सुबह सात बजे सिर के बीचों-बीच गोली मारने के आदेश हुए। उनकी अंतिम यात्रा धूमधाम से निकली और तेहरान में उनकी मजार आज भी बनी हुई है। हजारों ईरानी उन्हें आज भी श्रद्धांजलि देने आते हैं।
स्वयं माथुर जी ने किशोरावस्था में ही अंग्रेजो के खिलाफ झंडा उठा लिया था, जिसका खामियाजा उनके परिवार को भी भुगतना पड़ा। वह खुद स्टूडेंट कांग्रेस में सक्रिय रहे। वे अंग्रेजो के खिलाफ साइक्लोस्टाइल पर्चे छपवाते और साथियों को बांटते।
1942-43 में उनका यह अभियान लगातार चलता रहा। हाई स्कूल पास करने के बाद वे जब उच्च अध्ययन के लिए लखनऊ गए तो वहां भी वे ऐसी अंग्रेज-विरोधी गतिविधियों में संलग्न रहे। इससे नाराज होकर अंग्रेज सरकार ने उनके पिता को 46 वर्ष की आयु में ही अनिवार्य सेवा-मुक्ति दे दी। इससे उनके परिवार पर आर्थिक संकट छा गया। एक वक्त ऐसा भी आया कि आनंद मोहन माथुर जी को इंदौर की मालवा मिल में बदली मजदूर के रूप में काम करना पड़ा।
संघर्ष की आग में तपे और वकालत के पेशे में शिखर पुरुष के रूप में पहचान बनाने वाले आनंद मोहन जी की इस कृति में 22 भागों में शामिल करीब 50 कथाओं में से हर एक आजादी के आंदोलन की घटनाओं की सटीक परिस्थितियों और संवादों की प्रस्तुतियां हैं। यह इतिहास के एक श्रेष्ठ शोधार्थी के कृतित्व के समतुल्य हैं। बाकायदा वर्ष वार घटनाक्रम बताना और उस समय की परिस्थितियों का सीधी-सरल भाषा में शब्द चित्र पढ़ना एक जीवंतता की अनुभूति प्रदान करता है।
ऐसा इसलिए कि इसमें कथाओं में शहीदों के उद्गारों, संवादों के अलावा कविता और शायरी के अंशों का पुट है, जो रचना को सरस बना देता है। जैसे, इसमें कवि बांके बिहारी की प्रसिद्ध कविता “पगड़ी संभाल जट्टा” के अंश उद्धरत है (भाग 2)। यह कविता सन 1907 में अंग्रेजों द्वारा नया बंदोबस्त लागू कर लगान बढ़ाने के विरोध में लायलपुर (पंजाब) में हुई एक सभा में पढ़ी गई थी। तब वहां एक मेला लगा था और उसमें हजारों लोग आए थे। ऐसे ही इसमें फांसी के फंदे पर झूल गए राम प्रसाद, बिस्मिल और अशफाक उल्ला की शायरी, जो वतन-परस्ती से भरपूर है, पांच पेजों में प्रस्तुत की गई है। यह शुरू होती है:-
“जो गुलशन कभी आबाद था, गुजरे जमाने में। मैं शाखे-खुश्क हूँ, हां हां उसी उजड़े गुलिस्ता की।।" और अंत में है:- “अपना यह अहद सदा से था कि मर जाएंगे। नाम माता तेरे उश्शाक में कर जाएंगे।।" (भाग 3)
श्री माथुर, भगत सिंह के दीवाने हैं। उन्होंने भगत सिंह के दीवाने नामक एक संस्था भी बनाई है। उनकी इस कृति में भी शहीद भगत सिंह और उनके समकालीनों की कथाओं का आधिक्य है। इनमें से हरेक में ऐसा बहुत कुछ है जिसे आप लोग कम ही जानते हैं। जैसे, भगत सिंह ने कानपुर से प्रकाशित गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार प्रताप अखबार में पत्रकारिता भी की थी। उन्होंने इस अखबार के लिए दिल्ली के दंगों की रिपोर्टिंग की और इसमें बलवंत सिंह के नाम से काम किया। भगत सिंह का पूरा परिवार देश की सेवा में लगा हुआ था। उनके दादा अर्जुन सिंह, पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह ने विविध प्रकार से देश सेवा की और जेल गए। किशन सिंह ने मध्य प्रदेश और गुजरात के भीषण अकाल में तथा कांगड़ा में सेवाएं दी। चाचा स्वर्ण सिंह ने अखबारों में गरमा गरम लेख लिखें। जगह-जगह सभाएं की और जुलूस निकाले।
इस कृति में बाबा रामसिंह का भी दिलचस्प वर्णन है, जिनके अनुयाई नामधारी या कूका कहलाए। ये मुदकी स्थान पर 12 दिसंबर 1845 को लड़ी गई पहली सिख लड़ाई में सैनिक थे। बाबा एक महान संगठनकर्ता थे। उन्होंने 20 बरस किसानों को संगठित करने में लगाए। बाबा का आंदोलन धीरे-धीरे राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित हो गया। उन्होंने 1871 में असहयोग आंदोलन भी चलाया।
विदेशियों के खिलाफ हिंदुस्तान की क्रांति 1857 के करीब शुरू हुई, जिसे हम क्रांति कहते हैं और अंग्रेज गदर कहते हैं। उपलब्ध साहित्य में सरदार भगत सिंह, अशफाक उल्ला, राजगुरु, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल तथा कुछ अन्य के बारे में ही जानकारी मिलती है; वह भी थोड़ी-थोड़ी। लेकिन पंजाब में राधेश्याम कथावाचक, मदन लाल ढींगरा, भगवती चरण वोहरा, रासबिहारी बोस और पृथ्वी सिंह भी क्रांतिकारी हुए, जिनके बारे में बहुत कम ही जानकारी है। भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा भाभी ऐसी क्रांतिकारी महिला थीं, जिन्होंने अंग्रेजों से बदला लिया। श्री माथुर कहते हैं- “यह सूची छोटी है। सैकड़ों भारतीय शहीद हो गए, लेकिन उनकी कथनी-करनी के बारे में यह देश जानता ही नहीं है।“