पुस्तक समीक्षा : चेतना भाटी का कहानी संग्रह 'जब तक यहां रहना है'
Jab Tak Yaha Rahna Hai
समीक्षक- सीमा जैन 'भारत'
चेतना भाटी का कहानी संग्रह 'जब तक यहां रहना है' जिसमें 27 कहानियां हैं। चेतना जी, जिन्होंने व्यंग्य, लघुकथाएं, उपन्यास भी लिखे हैं उनमें विधा के अनुरूप शब्द विन्यास को ढालने की कला है। क्योंकि हर विधा की एक मांग होती है और उसे पूरा करके ही हम विधा के साथ न्याय कर सकते हैं।
चेतना जी के पास अनुभव की एक विस्तृत विरासत है। जीवन के जाने-पहचाने विषय और किसी नए नजरिए से देखने का काम ही साहित्यकार करते हैं। विषय को उनकी नजर, प्रस्तुति ही खास बना देती है। वही नए आयाम को छूने की कोशिश का नाम है... 'जब तक यहां रहना है' एक सार्थक शीर्षक, जब तक हम यहां है तब तक के ही यह किस्से हैं, शिकायतें या उम्मीद है।
'होली' के अवसर पर कल और आज में कितने फर्क आए हैं, यह सब हमको चेतना जी ने अपनी सीधी सरल भाषा में दिखाया है। जो एक बहुत कड़वा सच है जिसे देख और समझ तो सब ही रहे हैं पर अब पीछे लौटना संभव होगा या नहीं, कह नहीं सकते पर किताब एक कोशिश करती है जो बीत गया उसे याद दिलाने की उसे वापस से जीवन की मुख्य धारा से जोड़ने की।
'जब तक यहां रहना है...' यह नाम किताब का भी है। कल का समय और आज का समय, कितना कुछ बदल गया है! कल घर के सारे काम हाथ से होते थे। महिलाएं बड़ी लगन से सब कुछ करती थी। गेहूं बीनना हो या बड़ी-पापड़ बनाने हों सब कुछ घरों में ही होता था। अब समय बदला महिलाओं ने घर के साथ बाहर काम करना भी शुरू किया तो बहुत कुछ बदल चुका है। अब बहू वर्किंग वुमन हो या न हो वह पिछले जमाने की महिला की तरह काम नहीं कर सकती है।
यहां लेखिका ने दिखाया है कि बहू को अपनी जिम्मेदारी की समझ नहीं है या यूं कहें कि वह जिम्मेदार सास के भरोसे काम छोड़कर गैर जिम्मेदार हो गई है। उसे सास के काम करने के बाद वह क्या खाएंगी इसकी भी चिंता नहीं है और सास सब कुछ देख समझ रही है फिर भी लापरवाह नहीं हो सकती हैं, वह उसी शिद्दत से घर का काम करती हैं। अपनों के प्रति कितने लापरवाह...?
'पार्टी 'एक ऐसी कहानी है, जिसमें काम करने वाली बाई जीवन का सूत्र देती है... 'बारा महीने का तेवार' कामकाजी महिला ने उसे कहा था जो उनके जीवन का बहुत बड़ा सच है।
'मुंह दिखाई', आत्म-सम्मान, मेरे पास संस्कार है, 'शुक्रिया' पर समाप्त होता यह कहानी संग्रह आपको जीवन के कई रंग दिखाता है।
चेतना जी के लिए लेखन झरने की तरह मन में आता शब्दों का प्रवाह है जो निकल पड़ता है उसे कब कैसे मंजिल मिलेगी या नहीं, इसकी परवाह किए बगैर। हां, डूबे या कहीं पहुंचे इससे बड़ी बात है कि चलने की कोशिश तो की... प्रतिक्रियाओं के इंतजार के साथ...।