लोकतंत्र की खुली आलोचना : खुली किताब

रोजमर्रा की जिंदगी में कई बार आपका सामना सामाजिक व्यवस्था या सियासत के चक्रव्यूह से हुआ होगा और एक जनता के रूप में इस जनतंत्र की सार्थकता पर आपको सवालिया निशान देखना पड़ा होगा। लेकिन कुछ खुद की मजबूरी और कुछ व्यवस्था के मकड़जाल में फंसने के डर से हम हर बार कुछ सुन कर भी अनसुना कर देते हैं, कुछ देख कर भी अंधे बन जाते हैं।
 
मकान-दुकान, नौकरी-पेशा, जमीन-जायदाद, थाना-कचहरी, स्कूल-अस्पताल, चिकित्सक और अफसरान से संबंधि‍त हमारे अनेक काम हमारे अनुरूप नहीं हो पाते और वहां हम चाह कर भी अपने अधिकार या अपने हक के लिए अपनी आवाज बुलंद नहीं कर पाते हैं। क्योंकि हम किसी से पंगा लेना नहीं चाहते। जी हां ‘पंगा’। ‘छोड़ ना यार क्यों पंगा लेता है, जब कुछ दे-लेकर काम हो रहा है तो बेकार का पंगा क्यों।’ किसी अपने के द्वारा यह समझाने पर हम पंगे के डर से कुछ दे-ले कर काम चला तो लेते हैं, लेकिन हमारा यही काम शह देता है उन भूखे भ्रष्टाचारियों को जो ऊपरी आमदनी में बरकत ढूंढते हुए यह भूल जाते हैं कि उनका यह कुकर्म किसी की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहा होता है।
 
मुझे भी अपनी जिंदगी ने ऐसे तमाम अनुभवों से रूबरू कराया, जहां कभी रिश्वत को जायज ठहराया गया तो कहीं पैसा और पहुंच ने काबिलियत को दरकिनार किया। लोकतंत्र से विलुप्त होती लोक की महत्ता और जनतांत्रि‍क भारत में तंत्र में उलझे जन की आंखों देखी हकीकत को यहां मैंने कलमबद्ध करने की कोशिश की है।
 
पुस्तक : खुली किताब 
लेखक : अनुज गर्ग 
प्रकाशक  : वाणी प्रकाशन 
पृष्ठ संख्या : 110
मूल्य : 225 रुपए

वेबदुनिया पर पढ़ें