वेद और उपनिषद हमारी संस्कृति की आधारशिला है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि आज की पीढ़ी इन शब्दों से अपरिचित है किन्तु पीढ़ी को दोष देना अपने दायित्वों से विमुख होना है। आज तक वेद तथा उपनिषद को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने के न्यूनतम प्रयास हुए हैं, ऐसे में भाषिक स्तर पर लगभग निर्धन हो चुकी पीढ़ी से यह उम्मीद करना कि उनकी रूचि व दक्षता वेद-उपनिषद में हो, यह बेमानी होगा।
वरिष्ठ चिंतक एवं विद्वान डॉ. रामकृष्ण सिंगी ने स्तुत्य कार्य किया है। उनकी लेखनी से उपनिषद सरल-सहज शब्दों में पुन:सृजित हुआ है। डॉ. सिंगी ने उपनिषदों का एक संक्षिप्त परिचयात्मक अनुशीलन प्रस्तुत कर आज की जिज्ञासु युवा पीढ़ी पर उपकार किया है। डॉ. सिंगी गीता, चारों वेद, 18 पुराण व रामकृष्ण भक्तिगीत माला पर अपनी सुलेखनी चला कर पुण्य कार्य कर चुके हैं।
उपनिषद का सरल-सुबोध शैली में परिचय और भाषा का प्रवाह पाठक को आकर्षक ढंग से पुस्तक से जोड़े रखता है। यह लेखक की उपलब्धि कही जाएगी कि वे युवा पीढ़ी तक पुरातन पवित्र संस्कृति को पहुंचाने के अपने शुभ उद्देश्य में कामयाब रहे हैं।
पुस्तक बड़े ही प्रभावी तरीके से चार भागों में विभाजित की गई है- * पृष्ठभूमि, * स्वरूप, * विषयवस्तु, * प्रभाव। कहना होगा कि हर भाग को सटीक और सुन्दर शब्दों के साथ बुना गया है। कहीं कोई अनावश्यक विस्तार नहीं, बोझिल व्याख्या नहीं। उतना ही दिया गया जितना पाठक सहजता से ग्रहण कर सकें।
कहने को पुस्तक एक नन्ही सी कृति है लेकिन अपने भीतर अमूल्य संस्कृति का विराट खजाना समेटे हुए हैं। पुस्तक अप्रत्यक्ष रूप से यह अहसास जगाने में सफल रही है कि नवीन संस्कृति को अपनाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन अपनी ही संस्कृति की भव्यता से रूबरू होना उससे कहीं अधिक रोमांचक है।
पुस्तक के चुनिंदा अंश
* प्रकृति के मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने- प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे ही वैदिक ऋचाएँ और मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनन्द से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे। उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनन्द सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त ना हो। उन्होंने कामना की कि इस आनन्द को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगे और हमारे बाद की पीढि़याँ भी इसी प्रकार तृप्त रहे।
(उपनिषद काल से पहले' से)
* वैदिक ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने बनाई?' और 'कौन देवता है जिसकी हम उपासना करें?' वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले से संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चयन कर दिया और उस 'सत' का भी पता पा लिया जो उपासना का वस्तुत: अधिकारी है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद है।
('उपनिषदकालीन विचारों का उदय' से)
* उपनिषदों की संख्या 108 है परंतु इनमें से सबको समान महत्व प्राप्त नहीं है। 108 उपनिषदों में से प्रमुख कौन से माने जाएँ इस विषय में सामान्य मत यह है कि शंकराचार्य ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी वे ही सबसे प्रमुख हैं। उनके नाम है- 1)ईश, 2) केन, 3)कठ, 4) प्रश्न, 5) मुंडक 6) माण्डूक्य,7) ऐतरेय, 8) तैत्तिरीय, 9) छान्दोग्य, 10) वृहदारण्यक, 11) नृसिंह पूर्व तापनी । उपनिषदों की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है एवं अब यह 250 तक पहुँच गई है।
('उपनिषदों की संख्या'से)
* गार्गी के प्रश्न के उत्तर में( कि ब्रह्म या अक्षर तत्व कैसा है) याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया ' हे गार्गी, उस तत्व को ब्रह्मवेत्ता अक्षर कहते हैं - यह न मोटा है, न पतला, न छोटा है, न बड़ा, न लाल है, न द्रव है, न छाया है,न तम है, न वायु है, न आकाश है, न आनाकाश है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कान है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न सुख है, न माप है, उसमें न कोई अंतर है, न बाहर है, वह कुछ भी नहीं खाता और उसे कोई भी नहीं खाता। '
('वृहदारण्यक उपनिषद' से)
समीक्षकीय टिप्पणी
उपनिषद : संक्षिप्त परिचयात्मक पुस्तक में डॉ. रामकृष्ण सिंगी ने अदभुत कल्पना शक्ति से उपनिषद और उपनिषद से जुड़े तमाम अहम तथ्य कुशलता से संयोजित किए हैं। डॉ. राधाकृष्णन, स्वामी विवेकानंद, रामधारीसिंह 'दिनकर' और जवाहरलाल नेहरू के उपनिषद संबंधी विचारों की प्रस्तुति जहां पुस्तक की पठनीयता बढ़ाती है वहीं उपनिषदों के अमर कथन देकर लेखक ने पाठक मन को गहराई से समझा है। उपनिषद के छोटे-छोटे मार्गदर्शक संदेशों में जीवन जीने की कला निहित है।
ऐसे सुनहरे अनमोल संदेशों को पाठकों के लिए आकर्षक रूप में पिरोया गया है। सबसे महत्वपूर्ण गीता में उपनिषदों के यथावत लिए गए, संशोधन के साथ लिए गए और अंशत: लिए गए हिस्सों की जानकारी दी गई है। जिसे पढ़ कर लेखक के गहन अनुशीलन-शोध के प्रति मन नतमस्तक हो जाता है। पुस्तक महज युवा वर्ग के लिए ही नहीं बल्कि उन 'विद्वानों' के लिए भी पठनीय है जो उपनिषद के ज्ञाता होने का दावा करते हैं। लेखक की पिछली पुस्तकों की तरह यह पुस्तक भी मूल्यरहित है।
लेखक डॉ. रामकृष्ण सिंगी कहते हैं कि हमारे साहित्य की समृद्ध विरासत एक सुंदरतम भव्य महल की भांति है जिसके कई खिड़की और नक्काशीदार आकर्षक दरवाजे हैं। हम सब उन्हें बाहर से निहारते हैं, उनकी प्रशंसा कर स्वयं ही अभिभूत होते हैं लेकिन इस महल के अंदर झांकने की चेष्टा कोई नहीं करता। मैंने दरवाजा खोलने की कोशिश की है। यह बताने का प्रयास किया है कि अंदर आकर देखिए यहां कई बहुमूल्य रत्न छुपे हैं। मैंने रास्ता बताया है आगे का दायित्व पाठकों पर है।
पुस्तक : उपनिषद: उपनिषदों का एक संक्षिप्त परिचयात्मक अनुशीलन