परंपरा और परिवेश

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रतलाम के जाने-माने लेखक डॉ. मणिशंकर आचार्य का नाम देश की जर्जर हो रही संस्कृति को बचाने वालों की अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है। उन्होंने 'परंपरा और परिवेश' पुस्तक लिखकर भारतीय संस्कृति पर एक एहसान किया है। एहसान इसलिए, क्योंकि मौजूदा दौर में किसी को भी संस्कृति की परवाह नहीं है। भौतिक युग और पश्चिम की तेज आँधियों में साहित्य-संस्कृति का दीया जलाए रखने का जो साहस आचार्यजी ने किया है, वह सिर्फ उल्लेखनीय ही नहीं प्रशंसनीय भी है, क्योंकि मुर्दा संवेदनाओं के समाज में जिंदा संवेदनाओं के सपनेदेखना और उन्हें साकार भी करना एक अच्छा और नेक शगुन है।

पुस्तक में संकलित कई लेख तो पढ़े हुए हैं, क्योंकि 'नईदुनिया' व अन्य अखबारों-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। कुल 62 लेख पुस्तक में शामिल किए गए हैं, जिसमें आधे से ज्यादा लेख सिर्फ पठनीय ही नहीं, बल्कि पढ़ने वाले के जहनो-दिल को झिंझोड़ते भी हैं। मनमें इच्छाएँ पैदा होती हैं, जोश का समंदर हिचकोले लेता है कि चलो जर्जर हो रही देश की संस्कृति के लिए कुछ किया जाए। इस हिसाब से देखा जाए तो यह सिर्फ एक कोरी पुस्तक ही नहीं है, बल्कि एक अभियान भी जिसके माध्यम से भटकी हुई पीढ़ियों को रोशन राहें दिखाई जा सकती हैं। लेखक का यह दुख स्वाभाविक है कि सत्यमेव जयते का संदेश देने वाला देश किस दिशा में जा रहा है। सत्य ही जिस देश की पहचान है, जहाँ सत्य की पूजा की जाती है। शायद इसीलिए लेखक का आह्वान है कि लोग सत्य की राह पर चलने का संकल्प लें।

लेखक के विचार युग की पुकार महर्षि अरविंद से काफी प्रभावित हैं। महर्षि अरविंद मानते थे कि 'योग' में भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय है। महर्षि द्वारा रचित महाकाव्य 'सावित्री' मानव जीवन का रूपांतर करने वाला युगांतकारी ग्रंथ है। गोस्वामी तुलसीदास पर भी भरपूर सामग्री दी गई है। छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद, तीसरे सप्तम के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और आधुनिक हिन्दी के विशिष्ट कवि श्रीकांत जोशी के लेखों में मुख्तसर में बहुत कुछ कहने की कोशिश की गई है। किताब में अरविंद, तुलसीदास और ख्यातनाम कवियोंके जिक्र के साथ देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी का भी ज्रिक बड़े सलीके से किया गया है।

पंडित नेहरू ने देश को पगडंडियों से निकालकर राजमार्ग का रास्ता दिखाया। बैलगाड़ी वाले देश को नेहरू ने विज्ञान के उज्ज्वल सपने दिखाए। उनके दौर में नई-नई प्रगति हुई। पंडित नेहरू और उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गाँधी को अपने-अपने दौर का धूमकेतु कहा जाताहै, बल्कि भारत की समूची राजनीति दोनों के इर्दगिर्द परिक्रमा करती है।

'परंपरा और परिवेश' में बद्री केदार, नैनीताल और वैष्णोदेवी ने यात्रा वृत्तांत को अपनी अनूठी शैली में लिखा है। लेखक खुद रतलाम के हैं, इसलिए 'रतलाम' का जिक्र कैसे अछूता रह सकता है।
  यह सिर्फ एक कोरी पुस्तक ही नहीं है, बल्कि एक अभियान भी जिसके माध्यम से भटकी हुई पीढ़ियों को रोशन राहें दिखाई जा सकती हैं। लेखक का यह दुख स्वाभाविक है कि सत्यमेव जयते का संदेश देने वाला देश किस दिशा में जा रहा है। सत्य ही जिस देश की पहचान है, जहाँ सत्य      
'रतलाम के नमकीन' लेख में रतलामी सेंव की नमकीनियत और जायके का बड़ेखूबसूरत अंदाज में उल्लेख किया है। वैसे भी जो मजा रतलाम की सेव में है, उसकी कोई मिसाल नहीं है। रतलाम के ऑरो आश्रम पर भी संक्षिप्त जानकारी है, वहीं रतलाम के वंदनीय शिक्षक और 'ज्ञान-दान महादान' की कहावत को चरितार्थ करने वाले पुरुषोत्तम चौऋषि का जिक्र कर लेखक ने अपने संस्कारित होने की छाप छोड़ी है।

'परंपरा और परिवेश' नाम होने के कारण लेखक ने सभी तरह के लेखों को पुस्तक में संकलित किया है, लेकिन इससे पुस्तक की गंभीरता के चंद्रमा में दाग लगा है। आचार्यजी चाहते तो अपने कमजोर या अगंभीर लेखों को इस संकलन से अलग कर देते तो पुस्तक वाकईयादगार होती। फिर भी संवेदना शून्य हो रहे समाज को पश्चिमी तमस से मुक्त कराने के लिए भारतीय संस्कृति का नया उजास देने की लेखक ने कम से कम बूंद दो बूंद कोशिश तो की है।

* पुस्तक : परंपरा और परिवेश
* लेखक : डॉ. मणिशंकर आचार्य
* प्रकाशन : गोयल ब्रदर्स प्रकाशन, 11/1903, चूना मंडी पहाड़गंज, नई दिल्ली
* मूल्य : 200 रुपए

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