हिन्दी के लिए जब बुर्के को त्यागा

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-आशीदशोत्‍त
पर्दानशीं महिलाओं के बीच बैठकर और बोहरा समुदाय की होने के बावजूद एक महिला ने हिन्दी की जिस तरह सेवा की, वह हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रेरणादायी है। ये महिला थीं श्रीमती बानू बेन अब्बासी। मध्यप्रदेश के रतलाम शहर की महिलाओं में हिन्दी का अलख जगाने वाली बानू बेन का जन्म सन्‌ 1934 में मुंबई में हुआ था।

प्राथमिक शिक्षा सेंट एन्स हाईस्कूल में पूर्ण कर उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज से कला संकाय में स्नातक उपाधि प्राप्त की। आगे अध्ययन करने के लिए बानू बेन इंग्लैंड गईं और वहाँ क्वींस कॉलेज से सामाजिक विज्ञान में स्नातक की उपाधि सन्‌ 1952 में प्राप्त की। सन्‌ 1955 में वे भारत लौटीं और पिता ने व्यवसाय रतलाम में प्रारंभ किया तो वे रतलाम आ गईं। रतलाम में बानू बेन को यह अहसास हुआ कि यहाँ महिलाओं में शिक्षा के प्रति चेतना की कमी है।

इसी अहसास ने उन्हें कुछ करने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने सेठ नजरअली के संरक्षण में बोहरा महिलाओं और बालिकाओं के लिए शाला आरंभ की। स्वयं अँग्रेजी माध्यम में पढ़ी होने एवं परिवार में भी हिन्दी के प्रयोग की कमी के कारण उन्होंने यह ठान लिया कि हिन्दी भाषा को सीखने और सिखाने का प्रयास किया जाए। बानू बेन ने हिन्दी सीखी और तत्कालीन कोविद परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात वे राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की सदस्य बनीं। उन्होंने बड़ी संख्या में बोहरा महिलाओं को हिन्दी का ज्ञान दिया ।

बानू बेन की हिन्दी के प्रति साधना निःस्वार्थ रही और इसमें उनके पति बैरिस्टर ए.आई. अब्बासी का पूरा सहयोग रहा। बानू बेन ने कभी अपने कार्यों का प्रचार नहीं किया, मगर उनका कार्य इतना मजबूत था कि उसकी महक हर व्यक्ति तक पहुँच गई। पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी जब रतलाम आई थीं तो उन्होंने स्वयं बानू बेन के संस्थान का अवलोकन किया तथा बोहरा समाज में अशिक्षा के अँधियारे को दूर करने में जुटी बानू बेन की सराहना की। हिन्दी सेवा उन्होंने देशसेवा मानकर की और यही कारण रहा कि वे इस देश के एक अदने से नागरिक की भूमिका में भी बड़े-बड़े कार्य करती रहीं।

हिन्दी के प्रति यह बानू बेन का प्रेम कहें या हिन्दी भाषा की बानू बेन पर कृपा कि जिस दिन बानू बेन ने इस संसार को अलविदा कहा- वह दिन हिन्दी दिवस ही था। वे 14 सितंबर सन्‌ 1991 को हमसे रुखसत हुईं।

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