‍हिंदी भारत के भाल की बिंदी

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आज हिंदी दिवस है। आज एक बार पुन: हिंदी की महिमा का स्मृति दिवस आ पहुँचा है। हिंदी आज अपने प्रभाव से पूरे विश्व की नंबर एक भाषा बनने की ओर अग्रसर है। दुनियाभर में फैले लोगों में से लगभग 60 करोड़ लोगों का हिंदी बोला जाना इस भाषा का विश्वजन समुदाय में निरंतर बढ़ते वर्चस्का उदाहरण है।

इतना ही नहीं हिंदी भाषियों में 1 अरब से ज्यादा लोग हिंदी लिखते, बोलते और समझते हैं। विश्वमंच पर आज इस भाषा का लोहा माना जा रहा है। परंतु अफसोस इस बात का है कि हिंदी 'राजभाषा' होनके बावजूद स्वदेश में तिरस्कृत है। यह बेहद शर्मनाक बात है कि अपने ही देश में अपनी ही राष्ट्रभाषा बोलने पर आपत्ति जताई जा रही है।

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे को किस संविधान ने अधिकार दिया है कि वे किसी भी नागरिक को हिंदी बोलने से रोक सकते हैं। यह तो सीधे-सीधे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के अनुच्छेद (2), मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 19(1) तथा अनुच्छेद 29 के अधिकारों का हनन है।

  राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे- 'हिंदी न जानने से गूँगा रहना ज्यादा बेहतर है।' पूरे देश की बात छोड़िए। राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालय में सिर्फ अँग्रेजी भाषा में व्याख्यान और अँग्रेजी पुस्तकों का राज चल रहा है।      
यह कैसी विडंबना है कि हिंदी को अपने ही देश में तिरस्कार सहना पड़ रहा है। राजभाषा को उसका सम्मान लौटाने के प्रयासों पर तो यह आत्मघाती हमला है ही। स्वदेश में हिंदी का विरोध अंसवैधानिक है। यदि राज ठाकरे 'भाषाई दादागिरी' पर उतर आए तो वे यह क्यों भूल रहे हैं कि मुंबई के विकास की नींमें 'हिंदी' है। यदि हिंदी फिल्में मुंबई में न बनती तो मुंबई आज कहाँ होती? भाषाई हिटलरशाही सर्वथा अनुचित है।

आज जरूरत हिंदी को भारत माता के भाल की बिंदी बनाने की है। आजादी प्राप्त किए आधी सदी बीत गई। हमारे राष्ट्र के पाँवों में अंग्रेजी भाषा बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के नाम पर नौकरशाहों, पूँजीपतियों, पाश्चात्य उपभोक्तावादियों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपने स्वार्थ के लिअँग्रेजी को ओढ़ रखा है।

यही कारण है कि एक बहुत बड़ा अभिजात्य वर्ग राष्ट्र की मुख्यधारा से कटा हुआ है। जो व्यक्ति अपने घर, गाँव, गलियों, चौबारों और अपने परिवेश की भाषा नहीं जानता हो। वह सामाजिक उत्थान में अपना व्यवहारिक योगदान कैसे दे सकता है?

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे- 'हिंदी न जानने से गूँगा रहना ज्यादा बेहतर है।' पूरे देश की बात छोड़िए। राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालय में सिर्फ अँग्रेजी भाषा में व्याख्यान और अँग्रेजी पुस्तकों का राज चल रहा है। अँग्रेजी ने वहाँ ऐसा वर्चस्व जमाया है कि वह पटरानी और हिंदी नौकरानी बन गई है।

लेकिन हिंदी कोई निर्धनों की भाषा नहीं है। संस्कृत से बनी हिंदी की दो हजार धातुओं से करोड़ों शब्द बने हैं, जो इसकी समृद्धता के प्रतीक हैं। आज जरूरत इस बात की है कि सार्वजनिक स्थानों पर, कार्यालयों, शिक्षण संस्थानों में अँग्रेजी के साथ हिंदी को समुचित स्थान दिलवाने के लिए देश को 'हिंदी सेनानियों' की उसी तरह जरूरत है, जिस तरह स्वतंत्रतता संग्राम सेनानियों की जरूरत थी। हिंदी हमारा गौरव है, मातृभाषा है, राष्ट्रभाषा है इसका सम्मान अंतत: राष्ट्र का सम्मान है।

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