भाषाओं के उद्यान में हिन्दी ऐसा पुष्प है जो माधुर्य, सौंदर्य और सुगंध से भरपूर है। माधुर्य के कारण हिन्दी मिष्ट है। सौंदर्य के कारण हिन्दी शिष्ट है। सुगंध के कारण हिन्दी विशिष्ट है। माधुर्य, हिन्दी का शिवम् है। सौंदर्य, हिन्दी का सुंदरम् है। सुगंध, हिन्दी का सत्यम् है।
हिन्दी की वर्णमाला में ही वह सामर्थ्य है कि वह संसार की किसी भी बोली और भाषा को ज्यों-का-त्यों लिखित रूप दे सकती है। हिन्दी का व्यक्तित्व वर्णमाला में विराट है। व्यक्तित्व की विराटता से तात्पर्य हिन्दी वर्णमाला का विशद् होना नहीं है अपितु ग्राता का यह गुण है जिसके अंतर्गत किसी भी भाषा या बोली के उच्चारण को जस-का-तस पेश किया जाता है।
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फ्रेंच भाषा मादक है परंतु आकर्षक और मोहक नहीं। इटेलियन भाषा आकर्षक है परंतु मादक और मोहक नहीं। चीनी भाषा न तो मादक है, न आकर्षक और न मोहक। हिन्दी भाषा मादक भी है, आकर्षक भी है और मोहक भी है। तभी तो रूस के वरान्निकोव और बेल्जियम के बुल्के भारत आकर हिन्दी को समर्पित हो गए।
प्रश्न यह उठता है कि मोहक न होने पर भी अँगरेजी को अंतरराष्ट्रीय महत्व क्यों प्राप्त है तथा मोहक होने के बावजूद हिन्दी अपनी ही धरती पर उपेक्षिता क्यों है? संविधान हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा घोषित करे और सामर्थ्य की सुगंध के बावजूद हिन्दी अपने ही आँगन में अपमानित होती रहे। सत्यम् शिवम् और सुंदरम् होने के बावजूद हिन्दी भाषा की राह में रो़ड़े क्यों और रो़ड़े कौन?
इन सवालों का एक ही जवाब है और वह है 'हिन्दी के प्रति हमारा हीनता-बोध। हिन्दी भाषा में महिमा भी है और गरिमा भी। परंतु हमारे हीनताबोध का यह आलम है कि हम हिन्दी को 'कुलियों की' और अँगरेजी को 'कुलीनों' की भाषा मानते हैं।
देश स्वाधीन है परंतु वैचारिक और मानसिक दृष्टि से हम आज भी दास हैं। इसी कारण हिन्दी को 'कू़ड़े-करकट का ढेर' और अँगरेजी को 'अमृत-सागर' समझने की हमारी मान्यता आज भी नहीं बदली है।
निस्संदेह, हिन्दी में सामर्थ्य की सुगंध है। जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है। बोले जाने वाले अक्षरों और लिखे जाने वाले अक्षरों में कोई अंतर नहीं होता। उनमें एकरूपता होती है, विविधता नहीं। उदाहरणार्थ, हम 'कोण' बोलेंगे तो हिन्दी में लिखेंगे भी 'कोण' ही। 'ण' को हम 'ण' ही लिखेंगे, 'न' नहीं। परंतु उर्दू, अरबी, फ्रेंच और अँगरेजी भाषा में 'ण' को 'न' ही लिखा जाएगा।
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इस प्रकार हिन्दी भाषा का 'कोण' अन्य भाषाओं में 'कोन' हो जाएगा। परिणामस्वरूप अर्थ में ही अंतर आ जाएगा। इससे सिद्ध है कि सामर्थ्य की जो सुगंध हिन्दी के पास है वह अन्य भाषाओं के पास नहीं। फिर भी हिन्दी अनादृत है तो इसका कारण यह है कि जिस प्रकार से कुछ लोगों को सुगंध से अप्रियताबोध अर्थात् एलर्जी होती है, ठीक उसी प्रकार से भारत में तथाकथित अभिजात्य वर्ग है, जिसकी नाक के नथुने हिन्दी के सामर्थ्य की सुगंध से फड़कने लगते हैं,फलस्वरूप उन्हें 'मराठी की छींके' आने लगती हैं या अपनी 'मातृभाषा' की खाँसी चलने लगती है। अर्थात् एलर्जी हो जाती है। मातृभाषा जब 'मात्र' कुछ लोगों की भाषा बनकर रह जाए तो उसका कैसा और कितना विकास होगा यह सहज चिंतनीय है।
हिन्दी के सामर्थ्य की सुगंध से एलर्जी मानसिक दीवालिएपन की निशानी है। मराठी की छोटी-सी कटोरी की लालसा में, हिन्दी का नमक खाने वाले हम, हिन्दी की थाली में छेद कर रहे हैं। पिछले दिनों महाराष्ट्र विधानसभा की घटना ने सिद्ध कर दिया है कि हिन्दी भाषा को, अब अँगरेजी से नहीं, भारतीयों(!) से भय है।