प्रस्तावना : सदियों से नारी (Women) को एक वस्तु तथा पुरुष की संपत्ति समझा जाता रहा है। पुरुष नारी को पीट सकता है, उसके दिल और शरीर के साथ खेल सकता है, उसके मनोबल को तोड़कर रख सकता है, साथ ही उसकी जान भी ले सकता है। मानो कि उसे नारी के साथ यह सब करने का अघोषित अधिकार मिला हुआ है।
मगर यह भी सच है कि अनेक नारियों ने हर प्रकार की विपरीत और कठिन परिस्थितियों का डटकर सामना करते हुए उन पर विजय प्राप्त की और इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया। आज की बदली हुई तथा अपेक्ष या अनुकूल परिस्थितियों में नारियां स्वयं को बदलने और पुरुष-प्रधान समाज द्वारा रचित बेड़ियों से स्वयं को आजाद करवाने हेतु कृतसंकल्प हैं। अब प्रश्न यह है कि नारी कितना बदले और क्यों? इसी बात की विवेचना हम इस निबंध में करेंगे।
नारी जाति का इतिहास और उसमें देखे गए बदलाव :
1. वैदिक काल : वैदिक काल की नारियों ने पुरुषों के समकक्ष स्थिति का आनंद लिया। वैदिक काल की महिलाएं शिक्षित होती थीं। उनका विवाह परिपक्वता की वय में ही होता था तथा उन्हें अपने वर को चुनने की आजादी होती थी।
2. मध्यकाल : मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। बाल विवाह, पुनर्विवाह पर रोक, बहुविवाह, राजपूत महिलाओं द्वारा जौहर, देवदासी प्रथा जैसी कुरीतियों के माध्यम से नारी जाति का शोषण आरंभ हो गया। नारियों को पर्दे के पीछे कैद कर दिया गया। इसके बावजूद अनेक नारियों ने संघर्ष करते हुए राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में विशिष्ट उपलब्धियां अर्जित कर सम्मान पाया। रजिया सुल्तान, गोंड रानी दुर्गावती, रानी नूरजहां, शिवाजी की माता जीजाबाई जैसी महिलाओं ने नारी जाति को गौरव प्रदान किया। मीराबाई ने भक्ति रस की धारा बहाई और वे इतिहास की एक किंवदंती बन गईं।
3. अंग्रेजी राज : अंग्रेजी राज में नारियों की स्थिति में धीमी गति से सुधार आना आरंभ हुआ। नारियों को शिक्षा पाने का अवसर मिला। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के उन्मूलन तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह के पक्ष में बड़ा योगदान दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़कर उनके छक्के छुड़ा दिए। आजादी की लड़ाई में अनेक महिलाओं जैसे डॉ. एनी बेसेंट, विजयलक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी और कस्तूरबा गांधी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। सुभाष चंद्र बोस की सेना की एक कैप्टन लक्ष्मी सहगल थीं।
4. आजाद भारत : आजादी के बाद सन् 1950 में जब देश को संविधान मिला तो उसमें स्त्रियों को सुरक्षा, सम्मान और पुरुषों के समान अवसर व अधिकार मिले किंतु अशिक्षा, पुरातनवादी सोच तथा कमजोर सामाजिक ढांचे के कारण नारी जाति उन अवसरों और अधिकारों का पूर्ण रूप से लाभ न उठा पाई। अपने बचपन में वह पिता, जवानी में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र पर निर्भर रही। पति के घर में प्रवेश करने के बाद उसकी अर्थी ही बाहर निकलती रही।
मगर आजाद भारत के इतिहास को नारियों की गौरव गाथा से रीता नहीं रहना था। इंदिरा गांधी 1966 में देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनीं। सुचेता कृपलानी यूपी की मुख्यमंत्री, किरण बेदी प्रथम महिला आईपीएस, कमलजीत संधू एशियन गेम्स में प्रथम गोल्ड पदकधारी, बेछेंद्री पाल एवरेस्ट पर प्रथम भारतीय महिला, मदर टेरेसा को नोबेल पुरस्कार, फातिमा बीबी प्रथम महिला जज सुप्रीम कोर्ट, मेधा पाटकर सामाजिक कार्यकर्ता जैसी अनेक महिलाओं ने पुरुषवादी समाज की सोच को धता बताते हुए अपनी बुद्धिमत्ता, नेतृत्व क्षमता और सामर्थ्य का परिचय दिया और इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा दिया।
बदलाव की बयार : स्वतंत्रता की रजत जयंती के बाद का समय विकास का स्वर्ग साबित हुआ। देश में कम्प्यूटर तथा अन्य टेक्नोलॉजी के विकास, टीवी युग का प्रादुर्भाव, आधारभूत संरचना के साथ बड़े उद्योगों की स्थापना ने देश में विकास के कीर्तिमानों की नई इबारत लिख दी। बॉलीवुड, फैशन और मनोरंजन की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। नारियों तक इस नवविकास की बयार पहुंची और उनकी स्थिति में काफी महत्वपूर्ण बदलाव आया।
आज नारियां पुरुषों से किन्हीं भी मायनों में कम और घर की चहारदीवारी में कैद नहीं हैं। वे उच्च शिक्षित हैं, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक व अंतरिक्ष यात्री हैं तथा हर तरह के उच्चतम पदों पर भी आसीन हैं। वे अपने वस्त्रों व जीवनशैली के साथ अपने जीवनसाथी का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं। उनकी सुरक्षा एवं हित रक्षा के लिए संविधान में लगभग 34 एक्ट प्रभावी हैं। नारियों ने साबित कर दिया है कि वे पुरुषों के समकक्ष नहीं, बल्कि उनसे बेहतर हैं।
आने वाले समय में नारी कितना बदले और क्यों? समाज की कुछ उच्च शिक्षित नारियां और उनके संगठन शायद यह समझते हैं कि मनचाहे कम वस्त्र पहनना, रोक-टोकरहित मुक्त जीवन जीना, मुक्त सेक्स की राह पर चलना ही वांछित बदलाव है। इस बदलाव का उनके पास कोई तर्कयुक्त जवाब उनके पास नहीं है सिवाय इसके कि सदियों से चले आ रहे रहन-सहन व आचार-व्यवहार के हर नियम को उन्हें बस चुनौती देना है।
इस बात में कोई संशय नहीं है कि नारी अपने जीवन में घर के सीमित दायरे के लिए नहीं बनी है। फिर भी नारी को यह भूलना नहीं चाहिए कि घर ही उनका किला और सबसे बड़ा कार्यक्षेत्र है जिसकी कि वे अकेली ऑर्किटेक्ट हैं। नारी के द्वारा घर को घर जैसा बनाने रखने में किया प्रयास महान होता है जिसमें वह अपने बच्चों का पालन-पोषण कर उनका और देश का भविष्य संवारती है।
घर की हर जिम्मेदारी को निभाकर वह अपने पति की धुरी और खुशहाल घर की नींव बनकर दिखाती है। ऐसे खुशहाल घरों से ही देश ताकतवर बनता है। हां, यह जरूरी नहीं कि घर संभालने में नारी अपने आपको इतना झोंक दे कि उसे अपने स्वास्थ्य, पोषण, खुशियों व अन्य सामान्य जरूरतों का ध्यान ही नहीं रहे। उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उसे घर में उतना ही सम्मान मिले जितना कि घर का पुरुष घर के बाहर काम करके अर्जित करता है। जरूरत पड़ने पर उसे इसके लिए कठोर बनकर भी दिखाना होगा।
ग्रामीण क्षेत्रों में भी बदलाव की बयार पहुंचने लगी है। मनोरंजन व संचार के साधन जैसे टीवी व मोबाइल गांवों में भी पहुंचने लगे हैं। गांवों की नारी अपने ससुराल आने से इसलिए मना कर रही है कि वहां शौचालय नहीं है। यह बड़ा बदलाव है और यह बयार और तेज होना चाहिए। एक बात और, समाज की जो भी रूढ़ियां, नियम या परंपराएं होती हैं, वे सारी की सारी गलत नहीं होती हैं। अत: जो भी बदलाव हों, वे तर्कसंगत होने चाहिए और उसमें दूसरों के हितों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। नारी को समय, स्थान, अपने परिवार, अपनी परिस्थिति और क्षमता के अनुसार ही उपयुक्त बदलाव को अपनाना होगा और वह भी क्रमिक तरीके से ताकि अनावश्यक टकराव को टाला जा सके।
उपसंहार : उपसंहार यही है कि नारी ने साबित कर दिया है कि जीवन की दौड़ में वह पुरुषों के समकक्ष ही नहीं, बल्कि उनसे बेहतर है। वही जीवन की असली कलाकार है और पुरुष उसके हाथों का मात्र रंग और कागज है। यह दुनिया पल-पल बदलती रहती है और नारियों को भी स्वयं को मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार लगातार बदलते रहना होगा।यह तय है कि नारी कोई वस्तु या दया की पात्र नहीं है।
सभी को पता है कि मां के रूप में एक कमजोर दिखने वाली नारी को भी जब लगता है कि उसके बच्चों पर कोई खतरा है तो उनकी रक्षा करने के लिए वह रणचंडी का रूप धारण करने में कोई देर नहीं लगाती है।