अन्यथा नहीं है कि अडूर गोपालकृष्णन एक बेहतरीन ओर बौद्धिक फिल्मकार हैं। अडूर गोपालकृष्णन का नाम सिर्फ फिल्म-जगत में ही नहीं, बल्कि बौद्धिक-जगत में भी समुचित सम्मान से लिया जाता है। उन्होंने अपनी कला-प्रतिभा के आधार पर मलयालम सिनेमा में जो क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं, उसकी समूचे सिने-संसार में सराहना हुई है। विश्व-स्तर पर अडूर गोपालकृष्णन के सिनेमा को सराहना और सम्मान मिलने से न सिर्फ मलयाली सिनेमा ही प्रशंसनीय हुआ है, बल्कि समूचा भारतीय सिनेमा भी गौरवान्वित महसूस करता है।
यह भी कहा जा सकता है कि अडूर गोपालकृष्णन का सिनेमा किसी भाषाई सिनेमा की सीमा तक ही सीमित नहीं रह जाता है, लेकिन इधर हाल ही में अडूर ने हिन्दी भाषा के संदर्भ में एक ऐसा संकुचित बयान दे दिया है कि उनके उक्त बयान से उनकी सोच पर सवाल खड़ा हो गया है। वे हिन्दी को लेकर डर, संकट और खतरा महसूस कर रहे हैं। वे अनायास ही हिन्दी थोपे जाने की भी चर्चा उठा रहे हैं। आखिर अडूर गोपालकृष्णन हिन्दी-विरोध का शोर क्यों मचा रहे हैं ?
हिन्दी से पैदा होने वाले खतरे, संकट और डर की ये बातें अडूर गोपालकृष्णन ने 'मुंबई लिटफेस्ट' में कही हैं। माना जाता है कि अडूर गोपालकृष्णन समझ बूझ वाले एक बेहतरीन फिल्मकार होने के साथ ही साथ भाषाई संवेदनशीलता के मुद्दे की भी बेहतर समझ रखते हैं, लेकिन 'मुंबई लिटफेस्ट' में दिए गए उनके भाषा-संदर्भित बयान से उनकी छवि थोड़ी धूमिल हुई। उनकी प्रश्नाकुलता इसलिए संदिग्ध है।
जब वे कहते हैं कि हिन्दी थोपना गलत है, हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं है और वह हो भी नहीं सकती है। आगे अडूर यह भी कहते हैं कि कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा तभी बन सकती है, जब वह देश के सभी लोगों द्वारा बोली जाए। यही नहीं, बल्कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि हिन्दी एक क्षेत्रीय-भाषा है और उसके (हिन्दी भाषा के) साथ उसी तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए।
आश्चर्य होना अस्वाभाविक नहीं है कि अडूर जैसा आला दर्जनों का एक फिल्मकार, भाषा की समझ में इस हद तक संकुचित भी हो सकता है ? क्या भाषा को लेकर उनकी समझ और संवेदनशीलता दोनों ही कटघरे में खड़ी नहीं हो गई है ? हिन्दी के संदर्भ में उनका अंदाज-ए-बयां किस भाषाई तमीज का पता देता है ? हिन्दी के लिए अडूर के बोल-बचन बेहद हल्के हैं, तो क्या हिन्दी समाज को भी उन्हें हल्के में ही छोड़ दिया जाना चाहिए ? अडूर गोपालकृष्णन ने 'मुंबई लिटफेस्ट' में जो कुछ भी कहा है, उस सबसे उनकी 'चिंता' की बजाय 'कुंठा' ही अधिक जाहिर हुई है, जो कि हिन्दी समाज के लिए 'चिंतनीय' है।
जब अडूर गोपालकृष्णन यह कह रहे होते हैं कि हिन्दी एक क्षेत्रीय-भाषा है, तो पूछा जा सकता है कि यही वाक्य जब अडूर अंग्रेजी में बोल रहे थे तो फिर भारत में अंग्रेजी किस क्षेत्र की भाषा है और उसे किस क्षेत्रीय-भाषा में शुमार किया जाना चाहिए ? ये तो बड़ी अजब-गजब बात हो गई भाई कि अंग्रेजी में हांकने वाला हांकते-हांकते हिन्दी को ही हांक लगा बैठा ? हिन्दी थोपने की नहीं, उसकी स्वीकार्यता के विस्तार की भाषा है।
महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा को लेकर हमें जो 'अपेक्षित' बताया था, उसे 'उपेक्षित' न समझते हुए उस पर पर्याप्त गौर किया जाना चाहिए।
गांधीजी ने 20 अक्टूबर 1917 को भरूच में गुजरात शिक्षा परिषद् के अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि यह कहना ठीक नहीं है कि मद्रास और दक्षिणी-प्रांतों में अंग्रेजी के बगैर काम नहीं चलता है। गलत नहीं है कि ठेठ द्रविड़ प्रांत तक में भी हिन्दी की आवाज सुनाई देती है। यहां यह भी अवश्य ही जोड़ा जा सकता है कि अब तो वह आवाज कुछ और अधिक दृढ़ता से सुनाई दे रही है।
गांधीजी के ही मुताबिक राष्ट्रभाषा से आशय यही है कि उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों। वह भाषा जो राष्ट्र के लिए आसान है। वह भाषा जिससे भारत के परस्पर धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज संपन्न हो सकें और कि उस भाषा का विचार करते समय 'क्षणिक' अथवा कुछ समय तक 'खामोश' रहने वाली स्थिति पर जोर न दिया जाए।
क्या गांधीजी द्वारा सुझाई गई उक्त कसौटियां गलत हैं ? क्या राष्ट्रभाषा के लिए इन कथित कसौटियों से इतर भी कुछ और कसौटियां उपलब्ध हो सकती हैं ? गांधीजी की कथित कसौटियों पर खरी उतरने के पर्याप्त कथित गुण क्या हिन्दी भाषा के पास नहीं हैं ? क्या अडूर गोपालकृष्णन बता सकते हैं कि अगर हिन्दी नहीं तो फिर वह कौन-सी ऐसी दूसरी भारतीय भाषा हो सकती है, जो हिन्दी से होड़ ले सके ? असम्मान की हद तक अस्वीकार्यता, अतार्किकता ही भाषाई-संस्कार को भी प्रश्नांकित करती है। क्या हम जानते नहीं हैं कि हिन्दी ने ही भारतीय दर्शन, चिंतन, अध्यात्म और भारतीयता की धरोहर को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई है ?
जिस तरह से साहित्य समाज का दर्पण है, ठीक उसी तरह से देखें तो हम पाएंगे कि भाषा, साहित्य का दर्पण है। भाषा से ही किसी भी समाज, सभ्यता, संस्कृति और जातीयता की पहचान होती है। भाषा ही वह माध्यम है, जिसके माध्यम से हम अपनी संस्कृति और अस्मिता को सुरक्षित रख पाते हैं। शायद यही कारण है कि भाषा ही सबसे पहले अस्मिताओं और संस्कृतियों के टकराव का कारण भी बनती है। आज के बाजार में हिन्दी और अंग्रेजी के टकराव को बतौर हिंग्लिश देखा जा सकता है। आज हिन्दी के प्रति मराठी समर्थक और दक्षिण भारतीय प्रदेश, जिस तरह की भावनात्मक-तीक्ष्णता और तीव्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं, उसी बहक और बहाव में अडूर गोपालकृष्णन भी फंस गए लगते प्रतीत होते हैं।
उल्लेखनीय बात भी यही है और इतिहास की गवाही भी यही तस्दीक करती है कि हिन्दी के प्रति इन प्रांतों में कभी भी वैमनस्य नहीं रहा। कटु सत्य तो यही है कि कभी कुछेक राजनीतिक-अवसरवादियों ने, तो कभी कुछेक असामाजिक-उपद्रवियों ने अपनी-अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए हिन्दी का ग़लत इस्तेमाल करने की क्षुद्र कुचेष्टाएं की।
बी.बी.सी. की एक रिपोर्ट कहती है कि तमिलनाडु में जो हिन्दी विरोध होता रहता है, उसका प्रारंभ वर्ष 1937 में ठीक तब हुआ था, जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रांत में हिन्दी लाने का समर्थन किया था, किन्तु द्रमुक के विरोध की वजह से ऐसा संभव नहीं हो सका। तब द्रमुक का वह हिन्दी विरोध इतना अधिक हिंसक हो गया था कि दो लोग मार दिए गए थे।
1937 के बाद 1964 में दूसरी बार हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश की गई, किन्तु एक बार फिर गैर हिन्दी भाषी, राज्य विरोध की राजनीति में शोर मचाने लगे। वर्ष 1967 के चुनाव में द्रमुक की जीत का एक प्रमुख कारण हिन्दी विरोध ही था। तब से लेकर आज तक हिन्दी विरोधी शरारती तत्वों द्वारा मुख्यतः एक ही कुतर्क दोहराया जाता रहा है कि अगर देश में हिन्दी का वर्चस्व स्थापित हो गया, तो गैर-हिन्दी भाषाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जहर और डर इस हद तक फैलाया गया कि हिन्दी के प्रति पर्याप्त जनरूचि होने के बावजूद हिन्दी-शिक्षण बंद करवा दिया गया। पता नहीं अडूर गोपालकृष्णन भी हिन्दी से इतना डरते क्यों हैं ?
क्या यह अवधारणा हास्यास्पद नहीं है कि हिन्दी-विरोध में गैर-हिन्दी भारतीय भाषाई लड़ाके, बतौर विकल्प अंग्रेजी को स्वीकार करने की बात तो करते हैं, किन्तु हिन्दी अपनाने से परहेज करते हैं ? क्या कोई बता सकता है कि भारत में कितने लोगों की मातृभाषा अंग्रेजी है और वह भाषा देश के कितने व किस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है ? अंग्रेजी भी भारत में बोली-लिखी जाने वाली एक भाषा है और इस बात से इंकार भी नहीं है, किंतु क्या तब हिंदी की उपेक्षा करते हुए 'उस' अंग्रेजी को 'वह' ओहदा दिया जा सकता है, जिसको ठीक-ठाक लिखने, पढ़ने और बोलने वालों की ठीक-ठाक संख्या, मुश्किल से इस देश में और आश्चर्यजनक ढंग से साढ़े तीन फीसदी भी बमुश्किल है ?
भारत एक ऐसा बहु भाषा-भाषी देश है, जहां चार सौ से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन शक नहीं कि सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है। लगभग बयालीस फीसदी भारतवासी अपना कार्य-व्यवहार हिन्दी में करते हैं। भाषा का सवाल बेहद संवेदनशील सवाल है। भाषा के सवाल को हमें गंभीरता से लेना चाहिए। क्या यह अनावश्यक है कि हम हिन्दी के प्रति एक ख़ास तरह की बेपरवाहीभरा व्यवहार करते हैं ? अंग्रेजी के प्रति हम जो अतिरिक्त आदर व्यक्त करते हैं, उसके मूल में कोई भाषा प्रेम नहीं है ? प्रायः यही देखा गया है कि हमें अंग्रेजी सिर्फ रोटी-रोजी के लिए ही नहीं, बल्कि प्रभुत्व और प्रभुता दर्शाने के लिए भी चाहिए।
भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन होने मात्र तक सीमित नहीं है, वह मनुष्य होने की ख़ास शर्त भी होती है। हमें हमारी भाषा के प्रति सतर्क और सजग रहने की जरूरत है। भाषा की भ्रष्टता हमें भाषा-विहीनता की ओर ले जाती है और यही भाषा-विहीनता हमारी मनुष्यता, संवेदनशीलता और भावनात्मकता को विकलांगता के साथ दरिद्र भी बनाती है। आज हिन्दी के साथ यही सब हो रहा है। बावजूद इसके इंटरनेट के इस्तेमाल में हिन्दी का इस्तेमाल तीव्रता के साथ बढ़ रहा है। जून 2015 तक नेट पर हिन्दी का इस्तेमाल करने वालों की संख्या तकरीबन छः करोड़ से कुछ ज्यादा ही पाई गई है। टी.वी. इंडस्ट्री, फ़िल्म इंडस्ट्री और हिन्दी न्यूज चैनल, राष्ट्रीय परिदृश्य पर छाए हुए हैं। हिन्दी के पत्र-पत्रिकाओं की पाठक संख्या में विस्मयकारी विस्तार देखा जा रहा है। हिन्दी थोपने का तो सवाल ही नहीं बन रहा है। हिन्दी सिनेमा के गीतों ने तो हमेशा ही सीमाओं का अतिक्रमण किया है।
चैन्नई, बैंगलुरू और त्रिवेन्द्रम जैसे शहरों में टैक्सी-होटल वाले हिन्दी बोलते-समझते हैं। ऐसे में जब अडूर गोपालकृष्णन जैसे लोग बिना किसी सोच-विचार के सार्वजनिक मंच से हिन्दी विरोध में बोलते हैं तो बेचारे हास्यास्पद और कुंठित ही नहीं, बल्कि लाचार-विचारहीन-बौद्धिक भी नजर आते हैं। पता नहीं अडूर गोपालकृष्णन किस प्रकार के भाषाई-हीनताबोध से ग्रस्त हैं ?