भारतीय काव्य-शास्त्र में आचार्य मम्मट को सम्माननीय स्थान प्राप्त है। मम्मट कश्मीरी पंडित थे और मान्यता है कि वे नैषधीय-चरित के रचयिता कवि हर्ष के मामा थे। वे भोजराज के उत्तरवर्ती माने जाते हैं। इस हिसाब से उनका काल दसवीं सदी का उत्तरार्ध बैठता है। ऐसा विवरण भी मिलता है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में हुई थी। इनके एकमात्र ग्रंथ 'काव्यप्रकाश' पर 'सुधासागर' नामक टीका के टीकाकार भीमसेन के अनुसार आचार्य मम्मट के पिता जैयट थे। ऐसी भी मान्यता है कि 'अष्टाध्यायी' नामक व्याकरण ग्रंथ पर महर्षि पतंजलि द्वारा प्रणीत 'महाभाष्य' के टीकाकार कैयट और यजुर्वेद के भाष्यकार उव्वट (कहीं-कहीं पर औव्वट) दोनों आचार्य मम्मट के अनुज थे।
काव्य-प्रयोजन के बारे में मम्मट के विचार बड़े महत्वपूर्ण और बहुचर्चित हैं। अपने प्रसिद्ध सूक्त में उन्होंने काव्य का प्रयोजन क्रम से “यश-प्राप्ति,” “धनलाभ” “व्यवहार में दक्षता” शिवत्व से इतर यानी “अमंगल का नाश”, “रस अथवा आनन्द की प्राप्ति” और “प्रयेसी/पत्नी के समान सरस-शैली में उपदेश देना या अपनी बात कहना,” ये छह प्रयोजन बताए हैं।
काव्य-प्रयोजन संबंधी सारे ‘प्रतिमान’ अथवा ‘आदेश’ आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व के हैं। समय, स्थिति, देशकाल और हमारे जीवन-मूल्यों में इस बीच में भारी परिवर्तन आया है। साहित्य के उक्त निष्कर्ष भी अपना अर्थ खो रहे हैं। पूर्ण रूप से भले ही न खो चुके हों मगर आंशिक रूप से अवश्य खो चुके हैं। मम्मट के समय में, संभव है यश की कामना (लोलुपता) अर्थ-लाभ से अधिक महत्वपूर्ण रही हो, अतः मम्मट ने इसे पहले स्थान पर रखा। ‘प्रेयसी/पत्नी के समान सरस शैली में उपदेश देना या अपनी बात कहना,’ वाली विचारणा पर भी प्रश्न-चिन्ह लग सकता है।
आज के संदर्भ में मम्मट के आदेशों में सर्वस्वीकृत अथवा सर्वमान्य आदेश अगर कोई हो सकता है तो वह शिवत्व से इतर यानी “अमंगल का नाश”। मगर ऐसा नहीं हो रहा है। अन्य लोगों की तरह ही आज का रचनाकार/कवि भी यश और धन-लिप्सा के प्रति अपेक्षाकृत अधिक चिंतित नजर आ रहा है। धन अथवा यश-प्राप्ति को जो ‘हेय’ समझते, समाज/देश के वही नायक, हर्ताकर्ता, नियंत्रक,कर्णधार और अधिपति जब खुद धन और यश कमाने के लिए हर तरह के उचित-अनुचित काम कर रहे हैं, तो भला एक कवि या लेखक ही ‘परमहंस’ क्योंकर हो सकता है?