#लताजी: तुम न रच सकोगे कभी दूसरी लता, ईश्वर स्वयं भी नहीं.....

गरिमा संजय दुबे
लता ईश्वर की विभूति थीं, हैं 
 
फिल्मी दुनिया और लता मंगेशकर, दो विपरीत ध्रुव नज़र आते हैं, एक तड़क भड़क, दिखावे, शृंगार, बनाव, प्रेम वासना, शराब शबाब, झूठ, छल कपट, छीना झपटी की दुनिया और दूसरी तरफ लता जी, शांत सौम्य, गरिमामयी, तेजस्वी, पवित्र आभा संपन्न, साक्षात सरस्वती  । कोई सोच भी नहीं सकता कि इन विपरीत धाराओं के बीच कोई संतुलन साधा भी जा सकता है। रज से या तो प्रभावित हो सत अपनी आभा खो देता है, या भयाक्रांत हो अपनी राह बदल देता। जैसा लता जी के समकालीन कई गायक गायिकाओं के साथ हुआ, कुछ रज के शोर का हिस्सा हुए तो कुछ ने उस जगह को छोड़ अपने लिए केवल शास्त्रीय संगीत में शरण का सुरक्षित आश्रय लिया। 
 
यह लता जी ही थीं, जिन्होंने ने अपने सत गुण को सहेज रखा,  उन्होंने फिल्मी दुनिया के रज गुण से न नकली चमक लेना मंजूर किया, न अपने सत गुण को पराजित होने दिया, न उस जगह को छोड़ा। उन्होंने बॉलीवुड जैसी काली नकली चमक की रौशन दुनिया में अपनी खालिस हीरे की कोहिनूरी चमक बरकरार रखी। 
हीरे उन्हें यूँ भी बहुत पसंद थे, असली हीरे, और असली हीरे सा उनका व्यक्तित्व। नकली उजालों के बीच हीरे को अपनी चमक बनाये रखने के लिए बहुत सी कसौटियों पर कसा जाना होता है। जीवन भी हीरे सा हो तो कसौटियाँ  तो होंगी ही, और कसौटी है निरंतर साधना । लता जी, दी लता इसलिए नहीं हैं कि उन्हें अवसर, संगीत निदेशक बेहतर मिले, वो तो सबके लिए थे, वे लता इसलिए हैं कि लता जी निरंतर साधना रत थीं, उनकी साधना हर दिन बेहतर होने की थी, उसके साथ विनम्रता और सरलता से फिल्मी दुनिया जैसी कुटिल दुनिया में भी अपना सुरक्षित रखा। 
 
प्रभाष जोशी जी के लेख में अभी पढ़ा कि "काजल की कोठरी सी दुनिया में श्वेत साडी में पूरी गरिमा से,  पूरी ठसक से विराजने वाली वे ही थीं, क्योंकि चरित्र और प्रतिभा पर भरोसा उन्हें दि लता  बनाता है"। 

अहंकार रहित होना, सात्विक, निर्मल होना, आपके व्यक्तित्व में ऐसा चुम्बकत्व उत्पन्न करता है जो प्रकृति के हर अच्छे तत्त्व को आपकी और आकर्षित करता है । इसलिए उनके हिस्से हर दिव्य तत्व लगा। जब दुनिया को पता लगता है कि आप अपना कर्म साधना समझ कर रहे हैं, उसके अलावा आपका कोई ध्येय नहीं, पूरा समर्पण, सक्रियता वहीं हैं तो आपके पास खुद ब खुद चीजें आने लगती हैं। 
 
थोड़ा सा पा लेने पर लक्ष्य से भटक जाने वाले बहुतेरे कलाकार देखे, किंतु बहुत सफल होने पर भी  साधना में लेश मात्र भी व्यतिक्रम न होने देने की आदत ने लता को लता बनाया है। निरंतरता, दीर्घ साधना लता होने की पहली और अनिवार्य शर्त है। 
 
इसी ने वह सौम्यता, गरिमा, आभा, तेज दिया है जिसके आगे फिल्मी दुनिया की हर सुंदरी पानी भरती दिखती है, इसी सत्व के सामने रज झुकता दिखता है। हर्ष इस बात का रहा कि इतनी चमक दमक के बीच एक चेहरा तो ऐसा था जो उत्तेजना नहीं, पवित्रता का भाव जगाता था। 

और कंठ की बात करने का बल वाणी और कलम कहाँ से लाए, लता का होना आश्वस्त करता है कि ईश्वर है। विभूति योग कहता है कि ईश्वर इन विभूतियों के माध्यम स्वयं को प्रकट करता है। क्या किसी मनुष्य के लिए कर्म, साधना, यश की ऐसी पराकाष्ठा केवल अपने पुरुषार्थ के दम पर संभव है? पुरुषार्थ की प्रेरणा भी तो कहीं से प्राप्त होती है। 
 
तभी तो विभूतियों का जीवन पथ, उनकी यात्रा चकित करती है, और हम, स्वयं कलाकार भी इसे ईश्वर का वरदान कह देता है। वस्तुतः सत्य है, लता कोई धरती का तत्व हो ही नहीं सकतीं, वह तो दैवीय अनुग्रह प्राप्त विभूति हैं, जिनके माध्यम से ईश्वर स्वयं को अभिव्यक्त करता है। किसी मनुष्य का लता होना क्या संभव है, जरा सोच कर देखिये जीवन यात्रा पर दृष्टि डालिए, और नमन कीजिए उस परम तत्व को जो ऐसी विभूति रच घोषणा करता है  कि " तुम न रच सकोगे कभी दूसरी लता, मैं स्वयं कभी दूसरी लता न रच सकूँगा, लता तो केवल एक ही हो सकती हैं। न भूतो न भविष्यति । 
 
क्या कभी लगा कि वे सुर साध रही हैं, नहीं सुर तो चाकर, दासी की तरह उनके कंठ में स्थान पाने को प्रतिक्षा करते थे। और उस दिव्य कंठ में विराजित हो वह चमत्कार रचते रहे जिसकी व्याख्या के लिए कोई शब्द नहीं है। 
 
हम कृतज्ञ हैं, हमारे हर भाव को संगीत से सजाने के लिए। 
 
हर्ष, शोक, विषाद, प्रेम, वात्सल्य, भक्ति, दर्शन, शृंगार, देश प्रेम, दया, करुणा, स्नेह, सबमें शामिल हैं लता तत्व। अल्हड़ बचपन,  शोख़ युवा, संयत अधेड़, अशक्त वृद्ध जीवन की हर अवस्था के गीत जिनकी वाणी से निकले हैं ऐसी लता दीदी कहीं जा कैसे सकेंगीं। 
 
भारत सौभाग्यशाली है कि ईश्वर के विभूति संग्रह से उसके हिस्से में सबसे कीमती विभूतियाँ आईं हैं। हम आने वाली पीढ़ियों को गर्व से कह सकेंगें कि हाँ हमने लता जी को गाते सुना है। सरस्वती साधिका ने बसंत चुना जाने को, कला का अंक 6 छठ तिथि, पूरी दुनिया को अपनी कला से मुग्ध, चमत्कृत करने के बाद ईश्वर ने अपनी इस विभूति को अपने में पुन: समाहित कर लिया है। 
 
लता वे हैं जिन्होंने हर व्यक्ति को संगीत से परिचित करवाया, आप संगीत जाने न जाने लता के सुर आपको दैवीय, स्वर्गिक आनंद की अनुभूति करने का अवसर देते  हैं। उनकी आवाज रोमांचित करती है, आँखें नम करती है, विषाद हर लेती है, आनंद, उल्लास, उत्सव रचती हैं तो कहीं पीड़ा की गहन अनुभूति को स्वर दे देती हैं, कभी आध्यात्म और दर्शन के शिखर पर पहुँच वैराग्य के चरम पर जाकर निर्वेद का सृजन कर देती हैं। 
 
लता सुर संगीत का साक्षात विग्रह हैं, हैं इसलिए कि वे कभी थीं नहीं हो सकती। हम उस युग में हुएं हैं जिसमें लता जी के स्वर गूंजे हैं, इससे बड़ी जीवन की सार्थकता क्या होगी, जिसने लताजी को न सुना वो जन्मा ही नहीं, विश्वास नहीं हो रहा, विधाता क्या कभी कोई दूसरी लता का सृजन कर सकेगा ? और क्या सुर की वैसी विशुद्ध, दीर्घ साधना कोई कर सकेगा भला? 
 
युगों में कोई एक लता होतीं हैं, उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि शब्द भला कितना दम भरें। नमन हे संगीतमयी आत्मा, ईश्वर का दरबार अब उन सुरों से गुंजित होगा, मनुष्यों के हिस्से में इतना ही था, किंतु जितना था वह अक्षय कोष है। सरस्वती साधिका  ने जाने को बसंत ही चुना, किंतु धरती का बसंत सूना हो गया, नहीं नहीं उनके सुर हैं न हमारे साथ जो सजते रहेंगें हर अवसर पर।
 
पता था एक दिन ऐसा होगा, किंतु लता जी नहीं रहेंगी किसी दिन कभी मन मानने को तैयार नहीं होता था, किंतु वो रहेंगी सदा अपने सुरों के साथ, आने वाली पीढ़ियों को सुर का अर्थ समझाती  साधना का मर्म बताती, संगीत की आत्मा का साक्षात्कार करवाती वे सदा रहेंगीं। 
 
लता धरती को ईश्वर का वरदान हैं, वे विभूति हैं। क्या कहा जाए नेति नेति, न इति न इति ही कहा जा सकता है। मैं आँखे बंद किए लेटी हूँ और मेरे कानों में सत्यम, शिवम सुंदरम के सुर गूंज रहे हैं, संतोष सिर्फ इतना कि यह महाप्रयाण अपने पीछे सुर सागर छोड़ कर जा रहा है, एक मीठा सागर जो आने वाली कईं पीढ़ियों को सींचता रहेगा।

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