दृष्टिबाधितों में भी होता है ध्वनि, अनुभूति और कल्पनाओं का सुरम्य ताना-बाना
दृष्टिहीन और दृष्टिबाधित बच्चों के प्रति मेरे मन में हमेशा एक जिज्ञासायुक्त संवेदना रही है। ये बच्चे, जिनको हमारी तरह दिखाई नहीं देता, वे भी हमारी तरह ही सृष्टि की हलचल को महसूस करते हैं। आंखें भी कई बार धोखा खा जाती हैं।
यह भी लगता था कि आप देखते हुए भी वह नहीं देख पाते, जो महत्वपूर्ण होता है। देखना आंखों से ही नहीं होता, हमारी साफ समझ से भी होता है। दृष्टिबाधितों में भी ध्वनि, अनुभूति और कल्पनाओं का ऐसा सुरम्य ताना-बाना होता है जिसमें छवियां मस्तिष्क में अंकित होती हैं। इसी तरह की विचार प्रक्रिया के तहत खयाल आया कि कुछ वक्त दृष्टिबाधित बच्चों के साथ बिताया जाए।
2016 की अक्षय तृतीया को 'अनुभूति सेवा संस्थान' की सचिव श्रीमती चंचल की मदद से मैंने उन्हीं की संस्था के 14 विद्यार्थियों और उनकी 4 शिक्षिकाओं को संतूर होटल में भोजन के लिए आमंत्रित किया। अपने रोजमर्रा के परिवेश से बाहर निकलकर आए ये बच्चे बहुत खुश थे। सबको गुलाब की कली भेंट करने के बाद भोजन हुआ। कुछ बच्चे चहक रहे थे, कुछ शांत थे। सबके चेहरों पर असीम आनंद के भाव थे।
हमेशा होस्टल में रहने वाले ये बच्चे, होस्टल से बाहर होटल में आकर बेहद खुश थे। दृष्टिबाधित बच्चों के साथ संवाद का यह पहला मौका था। मन में कुछ आशंकाएं भी थीं, लेकिन नीयत साफ थी और सद्गुरु का आशीर्वाद भी। सो यह कार्यक्रम न केवल सफल रहा बल्कि और कुछ करने के लिए नया उत्साह दे गया और एक आत्मिक संतोष भी। यह प्रेरणा सद्गुरु की थी और मार्गदर्शन भी उनका ही।
अगले वर्ष 2017 में मन में दृष्टिबाधित बच्चों को सैर कराने का खयाल आया। इस खयाल का बहुतेरों ने मजाक भी उड़ाया लेकिन कुछ साथ भी आए। हमखयाल का एक समूह बन गया और नामकरण हुआ- 'स्पर्श'। इस समूह का पहला कार्यक्रम तय हुआ इंदौर की 'नखराली ढाणी'। इस बार तय हुआ कि कार्यक्रम 2 दिवसीय होगा।
सन् 2017 की 28 अप्रैल। उस दिन अक्षय तृतीया थी। 27 अप्रैल 2017 को दाहोद (गुजरात) के दृष्टिबाधित विद्यालय के 12 बच्चे और 3 शिक्षक आए। उनके ठहरने की व्यवस्था पालीवाल नगर स्थित गजानन महाराज के मंदिर में की गई। वहां प्रसाद के रूप में सबने रात्रि भोजन किया। अगले दिन नाश्ते के बाद सभी बच्चों को 'नखराली ढाणी' ले जाया गया।
रंगवासा गांव के निकट बनी इस ढाणी (गांव) में राजस्थान का ग्राम्य जीवन सृजित किया गया है। बच्चों ने यहां ऊंट व बैलगाड़ी पर सवारी कर ग्रामीण जीवन को अनुभव किया और तरणताल में भी खूब मस्ती की तथा मालवा के प्रसिद्ध दाल-बाफले के भोजन का आनंद भी लिया। इस नए अनुभव से सभी बच्चों के चेहरों पर खुशी झलक रही थी। एक असीम आनंद से पूरा वातावरण भर गया था।
स्थानीय स्तर पर लगातार 2 वर्ष तक हुए आयोजन से हमारा हौसला भी बढ़ा और उत्साह भी। 'स्पर्श' के साथियों से मशविरे के बाद 2018 के 11 और 12 अगस्त को 'सागर की सैर' पर जाना तय हुआ। स्थान चुना गया कोंकण तट पर रत्नागिरि जिले में स्थित 'पावस'।
वे बारिश के दिन थे। तेज बारिश का समय बीत चुका था, लेकिन बीच-बीच में तेज बौछारों का क्रम जारी था। पूरा कोंकण तट हरियाली से आच्छादित था और सहयाद्री की पर्वतमालाओं से गिरते दूधिया जलप्रपात। ऐसे सुरम्य वातावरण के बीच दाहोद और लखनऊ के स्कूलों से आए बच्चों के साथ हम लोग 'पावस' पहुंचे।
यहां महान आध्यात्मिक संत स्वामी स्वरूपानंद का मठ है। इसी मठ के भक्त निवास में सबकी निवास व्यवस्था थी और मठ के प्रसादालय में भोजन व्यवस्था। 'पावस' में बच्चों ने समुद्र तट पर खूब मस्ती की। तट की मुलायम रेत के स्पर्श से जहां वे पुलकित हुए, वहीं लहरों की गर्जना ने उन्हें रोमांचित किया। उनकी कल्पना में सागर समा गया। कोंकण के मशहूर आम व्यवसायी देसाई ने बच्चों को हापुस आम के रस की दावत दी। रंगारंग कार्यक्रम में बच्चों ने अपने सुरीले गीतों से समां बांध दिया।
निरंतर चौथे वर्ष में प्रवेश करते हुए इस वर्ष 2019 अगस्त की 9 और 10 तारीख को 'स्पर्श' का कारवां दाहोद के दृष्टिबाधित बच्चों को लेकर सरहद की सैर कराने राजस्थान में हवेलियों की स्वर्ण नगरी जैसलमेर पहुंचा। पहले दिन सभी बच्चे पाकिस्तान की भारी गोलाबारी में अविचल खड़े तनोट माता के मंदिर में आशीर्वाद लेकर अग्रिम सीमा चौकी पर पहुंचे।
वहां सीमा पर लगे कंटीले तारों के नजदीक सीमा की रक्षा में मुस्तैद खड़े सीमा सुरक्षा बल के जवान गर्मजोशी के साथ बच्चों से मिले और उन्हें जानकारी दी। वहां मौजूद बीएसएफ के चौकी प्रभारी ने भी बच्चों को महत्वपूर्ण जानकारियां दीं। बच्चों ने स्मृतिचिन्ह और मिठाई देकर जवानों के प्रति कृतज्ञता जताई। निर्जन रेगिस्तानी इलाके में झुलसती गर्मी में देश की रक्षा के लिए खड़े जवानों से मिलकर सभी अभिभूत हुए।
अग्रिम चौकी पर जाते समय रास्ते में रेगिस्तान की रेत में भी बच्चों ने खूब मस्ती की। बाजरे की रोटी, दाल और केट-सांगरी की सब्जी के राजस्थानी भोजन के बाद शाम को बच्चों ने नाव से जैसलमेर की प्रसिद्ध गडीसर झील की सैर की। इस तरह 'सरहद की सैर' का पहला दिन समाप्त हुआ। बच्चों के रहने के लिए राजस्थान पर्यटन निगम के होटल 'ममल' में शानदार इंतजाम था। रात्रि भोजन के समय गीत-संगीत की महफिल जमी और बच्चों ने सुरीले गीत सुनाए।
दूसरे दिन जैसलमेर के प्रसिद्ध किले का भ्रमण किया गया और वहां से निकट स्थित लोंगेवाला बार म्यूजियम पहुंचे। इस म्यूजियम में 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तानी सैनिकों से बरामद हुए विभिन्न प्रकार के टैंक, विमान और शस्त्रास्त्र प्रदर्शित किए गए हैं। बच्चों ने उन्हें छूकर अनुभव किया और अपने शिक्षकों से इनके बारे में जानकारी प्राप्त की। यहां स्थित छोटे से थिएटर में प्रदशित फिल्म की कॉमेंट्री के माध्यम से बच्चों ने 1965 के युद्ध की वीर गाथाएं सुनीं और भारतीय सेना पर गर्व महसूस किया।
रत्नेश को उनकी विशेष सामाजिक सेवाओं के लिए स्वराज विकलांग (दिव्यांग) सेवा समिति, इलाहाबाद के द्वारा विकलांग (दिव्यांग) सेवा सम्मान से भी नवाजा गया है।