मानव-सभ्यता के विकास के समय से ही नेतृत्व करने वाले 'नायक' की भूमिका प्रमुख रही है। मनुष्य के सामुदायिक और सामाजिक जीवन को उसी के समूह में से उभरे किसी व्यक्ति ने दिशा-निर्देशित और संचालित किया है। समस्त समुदाय और उस सभ्यता का विकास नेतृत्व करने वाले व्यक्ति की सोच, समझ, व्यक्तित्व और कृतित्व पर ही निर्भर रहा है।
धरती पर रेखाएं खिंची और कबीले के सरदार राष्ट्रनायकों में परिवर्तित हुए। 100 साल की लंबी अवधि में पसरी बीसवीं सदी में इन राष्ट्रनायकों ने प्रमुख किरदार निभाया। एक तरह से तमाम सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों की बागडोर ही इन महारथियों के हाथ में रही। राजतंत्र, उपनिवेशवाद और लोकतंत्र के संधिकाल वाली इस सदी में अपने-अपने देश का परचम थामे इन राजनेताओं ने विश्व इतिहास की इबारत अपने हाथों से लिखी। इस श्रृंखला में वर्णित राजनेताओं की खासियत यह है कि उन्होंने अपने देश को एक राष्ट्र के रूप में विश्व के मानचित्र पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कड़ी में प्रस्तुत है चार्ल्स द गॉल-
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खुद फ्रांस में ही बहुत कम लोग थे, जो 22 जून 1940 की रात्रि को ऐतिहासिक रेडियो संदेश के माध्यम से विश्व परिदृश्य में पदार्पण से पहले चार्ल्स एण्ड्रे जोसेफ मेरी द गॉल को जानते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन सेनाओं के 12 दिनों से जारी हमलों से फ्रांस के हौसले पस्त हो चुके थे और तत्कालीन राष्ट्र प्रमुख मेजर पेटैन ने आत्मसमर्पण का निर्णय ले लिया। तब केवल 15 दिन पूर्व ही राष्ट्रीय सुरक्षा के अंडर सेक्रेटरी नियुक्त हुए द गॉल आत्मसमर्पण के निर्णय से क्षुब्ध होकर गुप्त रूप से ब्रिटेन रवाना हो गए। सर विंस्टन चर्चिल के शब्दों में ऐसा करते वक्त 'वे फ्रांस का गौरव भी अपने साथ सुरक्षित ले आए।'
उसी दिन शाम को उन्होंने रेडियो पर अपना ऐतिहासिक उद्बोधन दिया- 'यह मैं हूं जनरल द गॉल' और उन्होंने अपने प्रभावी वक्तव्य में सभी राष्ट्रभक्त फ्रांसीसियों को उनके साथ एकजुट होने का आह्वान किया। तब लोग जानने को उत्सुक हुए कि आखिर ये द गॉल हैं कौन?
दरअसल 1890 में जन्मे और पारंपरिक शिक्षा प्राप्त गॉल पढ़ाई के तुरंत बाद सेना में भर्ती हो गए थे। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में भी एक बहादुर सैनिक की भूमिका निभाई थी। तब वे तीन बार बुरी तरह घायल हुए थे और पांच बार उन्होंने जर्मन कैद से भागने का प्रयत्न किया था।
उसके बाद द गॉल ने कुछ समय सैन्य शिक्षा पढ़ाई और कुछ किताबें भी लिखीं। इसे फ्रांस का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि 1934 में उनके द्वारा लिखी किताब 'द आर्मी ऑफ द फ्यूचर' को फ्रांस के भीतर तो पूरी तरह नकार दिया गया, पर इसी किताब के सिद्धांतों को जर्मन सेनाओं ने काफी सराहा, अमल में लाया और 1940 में फ्रांस पर आधिपत्य जमाया।
अपने उद्बोधन के बाद लंदन को मुख्यालय बनाकर गॉल ने स्वतंत्र फ्रांस सेना को एकत्र किया। 1944 में मित्र देशों की विजय के बाद वे फ्रांस की अस्थाई सरकार के प्रमुख बने लेकिन कम्युनिस्टों के सरकार में हस्तक्षेप के विरोध में 1946 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद लगभग 11 साल तक यह युद्धनायक देश की राजनीति की मुख्यधारा से अलग रहा।
1958 में अल्जीरिया संकट की वजह से फ्रांस में गृहयुद्ध की आशंका के चलते देश को द गॉल की पुन: याद आई। वे राष्ट्राध्यक्ष बने, फ्रांस के संविधान की नए सिरे से रचना की और कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनमत संग्रह करवाया। अगले 10 सालों में द गॉल ने महत्वपूर्ण कूटनीतिक निर्णयों और सुधारों से फ्रांस को पुन: एक गौरवशाली राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया।
एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में 'जनमत संग्रह' को बेहद पसंद करने वाले द गॉल को 1969 में जब देश में प्रशासनिक सुधारों वाले एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर जनमत संग्रह के दौरान अपेक्षित परिणाम नहीं मिले तो उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। उसके बाद एक वर्ष बाद ही फ्रांस के इस राष्ट्रनायक का देहांत हो गया।