यह लता का वैभव है। लता के विराट साम्राज्य का एक हिस्सा, लेकिन उनके तमाम गीतों में इस गीत का एक अलग ही मुक़ाम। कारण, जिस पिच पर उन्होंने इस गीत को गाया, वह अन्यत्र दुर्लभ है। तारसप्तक पर गाने वाली स्वरकोकिला इस गीत को लगभग गुनगुनाते हुए, कुछ ऐसी मद्धम बुदबुदाहट के साथ गाती है कि वह पूरे समय हवा पर भाप की सांसों की तरह तैरता हुआ-सा लगता है।
गीत के प्रारंभ में पियानो के एक सधे हुए इंट्रो के बाद लता कुछ इस तरह फुसफुसाते हुए गीत की शुरुआत करती हैं मानो वे सचमुच कोई दीप जला रही हों और अंदेशा है कि कहीं दियासलाई बुझ न जाए। इस सूक्ष्म सांकेतिकता को देखिये, लता अपनी आवाज़ की कूची के ज़रिये हमारे मन के कैनवास पर अनेक चित्र रच देने में सदैव सक्षम हैं।
परदे पर निम्मी हैं। 'बरसात', 'दीदार', 'आन', 'दाग़', 'अमर', 'उड़नखटोला', 'मेरे मेहबूब' जैसी फिल्मों (जिनमें से अनेक के नायक दिलीप कुमार) की लो-प्रोफ़ाइल नायिका-सहनायिका। हमेशा, मन में मीठी गुदगुदी पैदा करने वाली एक कोमल स्त्री-छवि। यहां हम देख सकते हैं, वे घर में अकेली हैं। एकांत में ऐषणा मन में धूप के पंखों की तरह फैलती है, अनुराग पुष्ट होता है। वे ग्रामोफ़ोन चलाती हैं और गाने लगती हैं। गीत रिकॉर्ड होता रहता है।
गीत की सेट-डिज़ाइन भी ग़ौरतलब। कमरे में एक जगह हम तानपूरा देख सकते हैं, प्रेक्षक के लिए यह एक सजेशन कि नायिका का गहरा नाता संगीत से है। चूंकि गीत में 'दीये' का मोटिफ़, लिहाज़ा समय-समय पर कंदीलों के कसे हुए क्लोज़अप।
यह फिल्म 'आकाशदीप' (1965) का गीत है। संगीत, चित्रगुप्त का। गीत के प्रारंभ में लता के फुसफुसाहट भरे उपोद्घात के बाद चित्रगुप्त का तबला कुछ इस अंदाज़ में पिकअप करता है कि हम हठात जड़वत रह जाते हैं, ज्यूं रेशम के धागों से जकड़ दिए गए हों। तबले के ऐसे प्रिसाइस बोल ग़ुलाम मोहम्मद के संगीत की ख़ासियत रहे हैं। बीच-बीच में स्वर्गिक घंटियों के स्वर, जो कि संगीतकार रोशन की सिग्नेचर स्टाइल। हर संगीतकार के कुछ पसंदीदा साज़ जो होते हैं, जैसे मदन मोहन की सितार, नैयर की ढोलक, एसजे का अकॉर्डियन, दादा बर्मन की बाऊल-बांसुरी।
शायर मज़रूह की एक अधिक सुदूरगामी व्यंजना। यह मज़रूह ही कर सकते थे कि 'तन पे उजाला फैल गया/पहली ही अंगड़ाई में' जैसी पंक्ति रच दें। और इस गीत के हर क़दम पर उस एक उजाले की छांह है। बोलों में, साज़ों में, नायिका की ऐषणा के एकांत में, गीत की अतुल्य मधुरता में। प्यार में, दिल जब दीया बन जाता है, तो जैसे भीतर एक लौ लगती है, रोशनी के फूल खिलते हैं, और एक उजाला बेसाख़्ता करवटें बदलता है। उसमें एक ऊष्मा होती है, दाह होता है, एक अनिर्वचनीय आभा। हृदय के इन लगभग असंभव उद्गारों को व्यक्त कर देने में सक्षम गीत है यह, जो किसी चमत्कार से कम नहीं। और लता : वे इस गीत की क्राउनिंग-ग्लोरी हैं, उसका वैदूर्य मणि का मुकुट, जैसे चांदनी के चंदोवे पर मोरपंख का सिरोपा।