नारी पर कविता : मैं यहां नहीं हूं...

मैं हूं नारी
मैं हूं प्रताड़ित
 

 
मैं हूं मरती 
मैं हूं छिदती
मैं हूं दबती
मैं हूं जलती 
 
मैं हूं उबरती
 
मैं हूं क्षत-विक्षत
मैं हूं हत-आहत
मैं हूं विकृत
मैं हूं लटकती 
 
मैं हूं बलि
 
मैं हूं पीड़ित
मैं हूं भूतनी
मैं हूं पिशाचिनी 
मैं हूं डंकिनी 
 
मैं हूं फरिश्ता
 
मैं हूं आहत
मैं हूं दागी
मैं हूं व्यथित
मैं हूं मुक्ति 
 
मैं हूं पवित्र
 
मैं हूं मौन
मैं हूं अंधी
मैं हूं अंधेरा 
मैं हूं खंडित
 
मैं हूं दृष्टि
 
मैं हूं निर्योग्य
मैं हूं असत्य
मैं हूं अशिष्ट
मैं हूं बधिर
 
मैं हूं सत्य
 
मैं हूं भक्षक
मैं हूं लिप्सा*
मैं हूं तृष्णा*
मैं हूं ईर्ष्या
 
मैं हूं तृप्ति
 
मैं हूं कोप
मैं हूं सुस्ती
मैं हूं व्यर्थ
मैं हूं बंजर
 
मैं हूं प्रतिष्ठा
 
मैं हूं निर्बल
मैं हूं दुर्बल
मैं हूं निष्प्राण
मैं हूं उद्दंड
 
मैं हूं प्रबल
 
मैं हूं दोषी 
मैं हूं अप्रत्यक्ष*
मैं हूं अक्षुत*
मैं हूं विस्मृत
 
मैं हूं प्रमुख 
 
मैं हूं नगण्य*
मैं हूं कलह
मैं हूं अदृश्य
मैं हूं आदि*
 
मैं हूं अनादि*
 
मैं हूं अपराधी 
मैं हूं प्रतिवादी
 
वो हैं नियम 
वो हैं अनुशासन
वो हैं समाज
वो हैं व्यवस्था 
वो हैं अजगर
 
वो हैं शासक 
वो हैं पंचायत 
वो हैं साक्ष्य
वो हैं दर्शक
वो हैं निर्णायक
 
मैं हूं आशा
मैं हूं किरण
मैं हूं जन्मना*
मैं हूं शांति
मैं हूं सानंदा*
 
'निर्जन' मैं यहां नहीं हूं...। 
 
लिप्सा - lust
तृष्णा - fantasy
अप्रत्यक्ष - unseen
अक्षुत - unheard
नगण्य - unimportant
आदि - used
अनादि - unending
जन्मना - germinate
सानंदा - pleasure, goddess lakshmi

 

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