भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण से पूछा कि हे मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है, जो मैं सरशैया पर पड़ा हुआ हूं?
तब कृष्ण ने कहा- आपने अपने 100 पूर्वजन्मों में कभी किसी का अहित नहीं किया, लेकिन 101वें जन्म में एक बार आपके घोड़े के अग्रभाग पर वृक्ष से एक करकैंटा नीचे गिरा। आपने बाण से उसे उठाकर पीठ के पीछे फेंक दिया। वह बेरिया की झाड़ी पर जा गिरा और उसके कांटे उसकी पीठ में धंस गए। करकैंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतने ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते थे और करकैंटा अठारह दिन तक जीवित रहा और अंतत: आपको शाप देकर मर गया।
हे पितामह! आपके 100 जन्मों के पुण्य कर्मों के कारण आज तक आप पर करकैंटा का शाप लागू नहीं हो पाया, लेकिन द्रोपदी का चीर हरण होता रहा और आप मूकदर्शक बनकर देखते रहे। इसी कारण आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गए और करकैंटा का शाप आप पर लागू हो गया। प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा।
इस कहानी से शिक्षा यह मिलती है कि आपके सामने कोई व्यक्ति कुछ बुरा कर रहा है तो आप उसे रोकने का प्रयास जरूर करें। चुप न रहें। चुप रहने या देखते रहने का अर्थ यह है कि आप उस बुरे व्यक्ति के बुरे कार्यों में सहयोग कर रहे हैं। अत: उसके बुरे कर्मों का फल भी आपको भुगतना ही होगा, क्योंकि चुप रहकर आप उसके सहभागी बन गए हैं।