हिन्दी कविता : दाना दु:ख है मुझे...
प्रश्नों पर प्रश्नचिन्ह,
उत्तरों पर पहरे हैं।
देश मेरा आगे बढ़ रहा है,
दाना मांझी गिड़गिड़ा रहा है।
अस्पताल के भेड़िए लगा रहे हैं ठहाका,
बेटी मां की लाश के पास बैठी रो रही है।
अमंग देई की लाश कैसे जाएगी साठ मील दूर,
दाना के पास जेब में नहीं है फूटी कौड़ी।
लाश को कपड़े में लपेटकर,
रस्सी से बांधकर कंधे पर उठाकर।
रोती बेटी का हाथ थामकर,
चल पड़ता है दाना अपने गांव की ओर।
सभ्य समाज के ठेकेदार सड़क के दोनों ओर से,
देख रहे थे उस ठठरी को कांधे पर।
थोथी संवेदनाओं का लगा था अम्बार,
दाना का निस्पृह भावहीन चेहरा।
तिल-तिलकर खोल रहा था पोल,
मरती हुई मानवी संवेदनाओं की।
खबरों के ठेकेदार खींच रहे थे फोटो,
अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए।
कोस रहे थे सोती सरकारों को,
दे रहे थे दुहाई सत्य बोलने की।
बारह किलोमीटर तक एक गरीब की लाश,
बनी रही थिएटर सब देख रहे थे तमाशा।
सरकारें सोती रहीं,
मीडिया चिल्लाता रहा।
सभ्य समाज हंसता रहा,
बेटी रोती रही।
दाना कंधे पर लाश ढोता रहा,