कविता : व्यंग्य हास-परिहास

सुशील कुमार शर्मा
दोहा बन गए दीप-15 
 
मंचों की कविता बनी, कम वस्त्रों में नार, 
नटनी नचनी बन गई, कुंद हो गई धार।
 
नौसिखिये सब बन गए, मंचों के सरदार, 
कुछ जोकर से लग रहे, कुछ हैं लंबरदार। 
 
पेशेवर कविता बनी, कवि है मुक्केबाज, 
मंचों पर अब दिख रहा, सर्कस का आगाज। 
 
मंचों पर सजते सदा, व्यंग्य हास-परिहास, 
बेहूदे से चुटकुले, श्रृंगारिक रस खास। 
 
भाषायी गुंजन बना, द्विअर्थी संवाद, 
श्रोता सीटी मारते, कवि नाचे उन्माद। 
 
कुछ वीरों पर पढ़ रहे, कुछ अश्लीली राग, 
कुछ अपनी ही फांकते, कुछ के राग विराग। 
 
संस्कार अब मंच के, फिल्मी धुन के संग, 
कविता शुचिता छोड़कर, रंगी हुई बदरंग। 
 
मंचों से अब खो गया, कविता का भूगोल, 
शब्दों के लाले पड़े, अर्थ हुए बेडौल।
 
अर्थहीन कवि हो गए, कविता अर्थातीत,
भाव हृदय के खो गए, पैसों के मनमीत।

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