थप्पड़

पता ही नहीं चल पाया हमें
 
हो गए कब हाथ सुन्न हमारे !
 
उठ ही नहीं पा रहे हैं झुके कंधों से ऊपर !
 
उनके हाथ तो रहते हैं हमेशा ऊपर ही
 
सलाम बजाने के लिए कभी तो
 
मारने के लिए मरे हुए लोगों को
 
नीचे उतरते ही नहीं कभी जमीन तक !
 
हमारे हाथ तो सने ही रहते हैं मिट्टी में,
 
ताकते रहते हैं पैर कोई लिपटने के लिए
 
या फिर उलझते रहते हैं फटी हुई जेबों में
 
ढूंढने के लिए कुछ बुझे हुए सिक्के
 
डाले ही नहीं गए थे जो कभी वहां !
 
तो क्या अलग हैं हाथ हमारे हाथों से उनके ?
 
फिर तो होंगी जेबें भी उनकी अलग हमसे !
 
पैर भी होंगे नहीं हमारी तरह लड़खड़ाते से !
 
हां, वे तो चलते भी नहीं होंगे हमारी तरह से !
 
सब कुछ अलग है उनके और हमारे बीच ?
 
हाथ, पैर, जेबें, जुराबें, जोरुएं, जमीन-जायदाद !
 
तो क्या वे रोते भी हैं हमसे अलग ?
 
कौन उठाता होगा हाथ उन पर फिर ?
 
आसान नहीं होता हाथ का ऊपर उठना
 
समेटना पड़ती है क्रूरता समूचे ब्रह्मांड की फेफड़ों में
 
नहीं कर सकता है हर कोई यह काम आसानी से !
 
बस ‘चुने' हुए लोग ही कर सकते हैं इसे
 
हम चुने हुए नहीं हैं, बस ‘चुनने‘ के लिए बने हैं
 
रखना पड़ते हैं उसके लिए हाथ हमेशा नीचे, जमीन पर !
 
(कविता को ‘कलेक्टर’ शीर्षक के साथ भी पढ़ा जा सकता है)

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