वर्तमान परिस्थितियों पर कविता : न्याय की देवी...
हे देवी...!
क्या तुम भूल गई
धर्म, वर्ग, जाति,
अमीरी-गरीबी,
हैसियत-औकात,
सब छोड़कर,
मंदिर-मस्जिदों के
इस देश में
सबसे ज्यादा टेका जाता है
तुम्हारी चौखट पर माथा।
लोग खपा देते हैं
अपनी तमाम उम्र...
केवल इसलिए
कि तुम्हारी तराजू का
कोई भी पल्ला
लाखोलाख अशर्फियों के बोझ से
नहीं झुक सकता...
चंद धन्ना सेठों की तरफ,
न बच सकता है ऊंचे से ऊंचा
पदासीन भी तुम्हारे न्याय-धर्म से।
तुमने भी शायद इसलिए ही तो बांधी है
अपनी आंखों पर काली पट्टी,
जिससे कोई यह इल्जाम न दें
कि कौंध गई हैं तुम्हारी आंखें
हीरे-जवाहरात की चकाचौंध में।
हे देवी...!
मैं जानता हूं
तुम कुछ नहीं भूली
तो फिर यह सन्नाटा क्यों...?
क्या तुम सुन सकती हो
कि लोकतंत्र आज खतरे में है...?
क्या तुम्हें ज्ञात है
न्याय बलिबेदी पर सर रख चुका है
और तुम्हारी तलवार तुमसे छीनकर
अज्ञातों ने कर ली है कैद...।
हे देवी...!
क्या अब तुम बस सुनती रहोगी
दीनों की पुकारें...
निर्भयाओं की दर्दभरी आवाजें...?
हे देवी...!
क्या अब असहायों का मसीहा
कोई नहीं होगा...?
हे देवी...!
क्या अब गुंडों, माफियों, हत्यारों
और अपराधियों का बोलबाला होगा,
क्या अब तानाशाही हुकूमत राज करेगी...?
क्या अब स्वार्थी भाई
बेसहारा भाई को कर देंगे नीलाम।
हे देवी...!
क्या तुम्हें भी आधार बनाया जाएगा
अपनी-अपनी स्वार्थी राजनीति के लिए...?
त्राहिमाम् देवी... त्राहिमाम्...
इससे पहले कि लोकतंत्र बिखर जाए
न्याय शास्त्र चौपट हो जाए
जागो देवी,
उतार दो आंखों से पट्टी,
रख दो तराजू कुछ देर बाजू में
और भींच लो तलवार
न्याय को न्याय रखने के लिए
जरूरी है अब तुम्हारा जागना देवी...!