हिन्दी कविता : स्वप्न शेष है

राम लखारा ‘विपुल’
 
बरस बीत गए आजादी के स्वप्न शेष हैं कई अभी
शेष अभी रोटी की इच्छा शेष जतन है कई अभी
आजादी के दिन भी वादे बहुत हुए जन रक्षा के
बरस बीत गए वहीं वचन प्रश्न बने अब यक्ष के

खून गिराकर प्राण जलाकर छोड़ चले जो देह
राष्ट्र यज्ञ में हवि हुए वो देश के हित भर नेह
नहीं भान था उन्हें कभी भी ऐसी लाचारी छाएगी
उनकी ही चिता पर चढ़कर रोटी सेंकी जाएगी
 
रक्त अश्रु बरस रहे यहां जन-जन की आंखों से
सत्ता अपना काम कर रही कुछ थोथी बातों से
पतझड़ का वो रंग क्या जाने सावन का इक अंधा
दीन हीन को ख्वाब बेचनें का बढ़ता गोरखधंधा
 
सत्ता के गलियारों में यह बात पहुंचाओ तो जाने
भ्रम में सोते सरदारों को सबक सीखाओं तो माने... 

वेबदुनिया पर पढ़ें