हिन्दी कविता : पेशावर के बच्चों की याद में...

हमें याद है वह सुबह
जब मां ने प्यार से
तुम्हें दुलारा था
 

 
 
नहलाया था सजाया था
खाना खिलाया था और
प्यार से तुम्हें रवाना किया था
स्कूल के लिए इस आशा से
‍कि तुम आओगे पुन: चंद घंटों बाद
कुछ ज्यादा समझदार बनकर
पर नहीं सुनाई दी थी तुम्हारे
आने की पदचाप वह
मां की प्यारी आवाज
वह स्कूल का बस्ता
वह टिफिन का डिब्बा
बच्चे रोते रहे क्रंदन करते रहे
हैवान खेलते रहे हैं हैवानियत का खेल
दम तोड़ती‍ रही इंसानियत
तड़पकर खत्म हो रही मासूमियत
वे नहीं समझ पा रहे थे कि
बच्चे भगवान स्वरूप हैं
वे पृथ्वी पर फरिश्तों का नया रूप हैं
फिर भगवान पर उंगली क्यों उठाते हों
फरिश्ते पर कीचड़ क्यों उछालते हो
तुम नहीं जानते तुम्हारी ये हरकतें
पैदा करेगी लाखों मलाला
जो दुनिया से खत्म करेगी
वैमनस्यता और नफरत की ज्वाला
तुम्हारी ये नापाक हरकत और घिनौनापन
नहीं खत्म कर पाएगा आदमी और
आदमी के बीच अपनापन
सैकड़ों बच्चों का बलिदान
व्यर्थ नहीं जाएगा
उनकी चीख उनकी आह उनका क्रंदन
एक नया सूरज उगाएगा
जो खत्म करेगा दुनिया से
मजहबी कट्टरता
फिर से स्थापित करेगा
संपूर्ण विश्व में शांति
और समरसता। 
 

वेबदुनिया पर पढ़ें