कार्ल मार्क्स: सर्वहारा वर्ग के मसीहा या 'दीया तले अंधेरा'

Story of Karl Marx: दुनिया कार्ल मार्क्स को एक ऐसे दार्शनिक के तौर पर जानती है, जिन्होंने अपनी पुस्तक 'दास कपिटाल' यानी 'पूंजी' के द्वारा दुनियाभर में जितनी उथल-पुथल मचाई, उतनी उनसे पहले या बाद में कोई और विचारक नहीं कर सका।

अपने जन्म के ठीक 200 वर्ष बाद, 5 मई 2018 के दिन, कार्ल मार्क्स अपने जन्मस्थान जर्मनी के ट्रीयर शहर में वापस आ गए। 17 वर्ष की आयु में जब वे ट्रीयर से चले थे, तब जर्मनी के ही बॉन विश्वविद्यालय में क़ानून की पढ़ाई करने गए थे। वापस लौटे हैं चीन में बनी 4.4 मीटर ऊंची और 2.3 टन भारी गहरे भूरे रंग की एक कांस्य-प्रतिमा के रूप में। यह प्रतिमा उनके जन्म की दो-सौवीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में चीन के उन कम्युनिस्ट नेताओं ने ट्रीयर को भेंट की थी, जो अब चीन में मार्क्सवाद से मुंह मोड़ चुके हैं, मार्क्स के नाम की चाहे जितनी माला जपें

चीन की इस भेंट ने एक लाख की जनसंख्या वाले ट्रीयर की नगरपालिका को बैठे-बिठाये ‘मान न मान, मैं तेरा मेहमान’ वाले धर्मसंकट में डाल दिया। मार्क्सवाद के नाम पर पिछले सौ वर्षों में दुनिया भर में जो दमन और अत्याचार हुए हैं, ख़ून और आंसू बहे हैं, उनके कारण ट्रीयर के निवासियों को ही नहीं, जर्मनों के व्यापक बहुमत को भी इस बात पर गर्व की जगह शर्म महसूस होती है कि कार्ल मार्क्स एक जर्मन थे। ट्रीयर की नगरपालिका चाह कर भी चीनी भेंट को ठुकरा नहीं पायी, क्योंकि चीन का अपमान मुसीबत का सामान बन सकता था।

माता-पिता यहूदी से ईसाई बनेः कार्ल मार्क्स के माता-पिता उनके जन्म से कुछ ही पहले यहूदी से ईसाई बन गए थे। पिता पेशे से वकील और कई अंगूरी बगानों के मालिक थे। पत्नी जेनी फ़ॉन वेस्टफ़ालन एक अभिजात सामंती परिवार की थीं। ‘सर्वहारा वर्ग के मसीहा’ कहलाये मार्क्स के रिश्तेदारों तक में मेहनत-मज़दूरी करने वाले दरिद्रनारायण से किसी का कोई लेना-देना नहीं था। हां,19वीं सदी का वह ज़माना यूरोपीय देशों में मज़दूरों के शोषण वाली औद्योगीक क्रांति का ही नहीं, घरेलू नौकरों-चाकरों के उत्पीड़न का भी ज़माना था। न तो बिजली होती थी और न आज जैसे घरेलू उपकरण। ग़रीब परिवारों की लड़कियां दूसरों के यहां नौकरानियों का काम किया करती थीं। रसोई और साफ़-सफ़ाई के अलावा जलावन लकड़ी काटने और कोयला ढोने जैसे भारी काम भी उन्हें ही करने पड़ते थे।

मार्क्स की पत्नी जेनी के सामंती माता-पिता के पास भी ऐसी ही एक नौकरानी थी–– हेलेना देमुट। हेलेना के नाम में से ‘हे’ हटा कर उसे ‘लेनशेन’ कह कर पुकारा जाता था। 1843 में जेनी वेस्टफ़ालन से विवाह के बाद कार्ल मार्क्स जहां-जहां गए, हेलेना को भी साथ-साथ जाना पड़ा। वह आज के जर्मनी के एक पूर्वगामी, प्रशिया वाले राजवंश का समय था। मार्क्स और प्रशिया के बीच 36 का आंकड़ा चलता था। इसलिए, अक्टूबर 1843 में मार्क्स को पेरिस भागना पड़ा। डेढ़ ही साल बाद पेरिस को छोड़ कर ब्रसेल्स में और 1849 में लंदन में डेरा डालना पड़ा। वहां भी खानाबदोशों की तरह बार-बार घर बदलते रहना पड़ता था।

छह वैध और एक अवैध संतानः लंदन में ही जून 1851 में मार्क्स की नौकरानी हेलेना देमुट ने एक बच्चे को जन्म दिया। नाम था हेनरी फ़्रेडरिक। कार्ल मार्क्स ही इस ‘अवैध’ संतान के पिता थे। उनकी छह वैध संतानें भी थीं— चार बेटियां और दो बेटे। वे कहा करते थे, ‘दार्शनिकों ने दुनिया की केवल अलग-अलग व्याख्या की है; ज़रूरत है दुनिया को बदलने की।’ दुनिया बदलने की उनकी उत्कंठा की ही शायद यह भी एक अभिव्यक्ति थी कि अपने अवैध बच्चे का उन्होंने अपने घर में पालन-पोषण नहीं होने दिया। एक दूसरे परिवार ने उसका पालन-पोषण किया।

उनका यह तिरस्कृत बच्चा जब भी अपनी मां से मिलना चाहता था, तब उसे पिछवाड़े के दरवाज़े से ‘कुत्ते-बिल्ली की तरह’ दुबक कर आना और सरसोईघर में अपनी मां से मिलना पड़ता था। दूसरी ओर यह नौकरानी मां, हेलेना देमुट, इतनी स्वामिभक्त थी कि दिसंबर 1881 में मार्क्स की पत्नी जेनी की और 14 मार्च 1883 को स्वयं मार्क्स की मृत्यु होने तक उनकी सेवा करती रही। मार्क्स के निजी जीवन के शोधकों का कहना है कि राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए ‘सर्वहारा’ कहलाने वाले जिन श्रमिकों और शोषितों से वे ‘हिंसापूर्ण क्रांति’ करने का आग्रह किया करते थे, अपने घर-परिवार में भी लगभग उसी हृदयहीनता का परिचय दिया करते थे।

‘पराया माल अपना’ के कायलः कार्ल मार्क्स दार्शनिक ही नहीं, ‘पराया माल अपना’ मानने वाले अर्थशास्त्री भी थे। सगे-संबंधियों और मित्रों-परिचितों से उधार लेकर उसे लौटाने के बदले उन्हें कोसने-धिक्कारने के कायल थे। यहां तक कि अपनी विधवा मां की रही-सही बचत पर भी हाथ साफ़ कर गए। ऐसे सगे-संबंधियों को वे ‘विरासत की राह का अड़ंगा’ कहा करते थे, जो जल्दी मरते नहीं थे। अपने परम मित्र फ्रीड्रिश एंगेल्स के नाम एक पत्र में अपने एक बीमार नज़दीकी रिश्तेदार के बारे में एक बार उन्होंने लिखा, ‘यह कुत्ता यदि अब मर जाता, तो मेरा काम बन जाता।’ तीन साल बाद जब वह मर गया, तो मार्क्स ने चहकते हुए लिखा, ‘कितनी खुशी की बात है!’

शोधकों को मार्क्स के कुछ ऐसे पत्र और लेख भी मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि वे यहूदियों से घोर घृणा करने वाले नस्लवादी भी थे। ऐसा तब था, जब उनके अपने माता-पिता यहूदी थे और उनके जन्म से मुश्किल से दो साल पहले ही ईसाई बने थे। तत्कालीन प्रशिया और आज के जर्मनी में यहूदियों के रहने-बसने का कम से कम 1700 वर्ष लंबा इतिहास है। तब भी यहूदियों को हमेशा अपने साथ भेदभाव सहना पड़ा है। इसी से तंग आकर मार्क्स के माता-पिता प्रोटेस्टैंट ईसाई बन गए थे; जबकि मार्क्स अपनी यहूदी जड़ों को झुठलाने में अपनी महानता देखते थे। आज के मार्क्सवादी भी बड़े गर्व से स्वांग भरते हैं कि वे तो हर राष्ट्रवाद और नस्लवाद से ऊपर हैं। पर क्या ऐसा हो सकता है कि वैचारिक तुच्छता की जो बीमारी मार्क्स में थी, वह उनके अनुयायी शिष्यों में नहीं हो सकती?

यहूदियों से घृणा थीः कार्ल मार्क्स के एक मित्र थे अर्नोल्ड रूगे। उनके नाम एक पत्र में मार्क्स ने लिखा कि उनके लिए ‘यहूदी धर्म बहुत घृणित है...यहूदी धर्म का लौकिक आधार भला क्या है? स्वार्थीपन! यहूदियों की सांसारिक संस्कृति क्या है? शतरंजी मात देना! उनका लौकिक भगवान कौन है? पैसा!... यहूदी धर्म कला, इतिहास और मानवीयता के प्रति दुर्भावना से भरा है। उसमें तो औरत भी शतरंज का मोहरा है।’ इस पत्र में मार्क्स ने यहूदियों के बारे में जो कुछ लिखा है, वह कई बार हिटलर की नाज़ी पार्टी के किसी घृणा-प्रचार से कम नहीं है।

फेर्डिनांड लसाल मार्क्स के समय के एक ऐसे यहूदी थे, जिसने जर्मन श्रमिकों को एकजुट करने की एक संस्था बना रखी थी। 1862 में वे मार्क्स से लंदन में मिले थे। क्योंकि मार्क्स भी अपने आप को जर्मन मज़दूर वर्ग का एक बड़ा नेता मानते थे, इसलिए वे लसाल से बहुत जलते थे। अपने मित्र एंगेल्स के नाम अपने पत्रों में वे लसाल के लिए ‘यहूदी नीग्रो’ (हब्शी) जैसे घटिया शब्दों का प्रयोग करते थे। ऐसे ही एक पत्र में मार्क्स ने लिखा, ‘मेरे लिए तो बिल्कुल साफ़ है कि उसके सिर की जिस तरह की बनावट है और जैसे उसके बाल हैं, वह भी ऐसे ही किसी नीग्रो की संतान है, जो मिस्र से चले मूसा (मोज़ेस) वाले झुंड के साथ हो लिया था... उसकी ढिंठाई भी ठेठ हब्शियों जैसी ही है।’ इसी तरह जेनी नाम वाली अपनी दो बेटियों में से बड़ी बेटी के नाम एक पत्र में, मार्क्स ने क्यूबा की एक क्रिओल मां की संतान उसके पति, यानी अपने दामाद, पॉल लफ़ार्ज को ‘निग्रेलो’ और ‘किसी गोरिल्ला की संतान’ बताया है!

मेहनत-मज़दूरी कभी नहीं कीः मार्क्स और एंगेल्स का मार्क्सवाद हमें चाहे जितना तार्किक लगे, पूंजीवाद में अंतर्निहित विरोधाभासों की तरह ही न तो मार्क्सवाद और न ही उसके इन दोनों प्रणेताओं का निजी जीवन विरोधाभासों से मुक्त था। दोनों महानुभाव बात तो करते हैं सर्वहारा के उद्धार की, पर उन्होंने खुद मेहनत-मज़दूरी कभी नहीं की। दोनों खुशहाल परिवारों से थे। उच्चशिक्षा प्राप्त थे। बुद्धिजीवी थे, न कि श्रमजीवी। इन्हीं तथ्यों को रेखांकित करते हुए, मई 2017 में, जर्मनी के दो भाइयों ब्यौर्न और सीमोन अक्स्तीनात ने, ऐसे ही पत्र आदि जुटा कर उन्हें पॉकेट-बुक के रूप में प्रकाशित किया। पुस्तक को नाम दिया, ‘मार्क्स और एंगेल्स अंतरंग’ (मार्क्स उन्ट एंगेल्स इन्टीम)। सीमोन अक्स्तीनात के हाथ अचानक कुछ ऐसे उद्धरण लगे, थे, जो काफी घटिया या मुंहफट क़िस्म के थे। इससे दोनों भाइयों की जिज्ञासा बढ़ी कि जब इस तरह के दो-चार उद्धरण मिले हैं, तो खोज करने पर और भी मिल सकते हैं।

सर्वहारा वर्ग के झूठे मसीहाः पुस्तक के लोकार्पण के दिन जर्मन मीडिया के साथ बातचीत में ब्यौर्न अक्स्तीनात ने कहा कि लोग यही मानते हैं कि मार्क्स सर्वहारा वर्ग के मसीहा थे। पूंजीपतियों, कुलीनों और सामंतों से लड़ने का आह्वान करते थे। पर, हम पाते हैं कि कहने को तो वे मेहनत-मज़दूरी करने वालों को शोषण से मुक्ति दिलाना चाहते थे, किंतु मूलतः उन्हें ‘महामूर्ख’ ही मानते थे। अपनी कई चिट्ठियों में उन्होंने ‘मज़दूरों को अपमानित’ किया है। किसानों को भी नहीं बख्शा है। ‘मज़दूरों को उनकी दुर्दशा से मुक्ति दिलाने की लंबी-चौड़ी बातें तो खूब लिखी-कही हैं, पर वे उन्हें पसंद नहीं करते थे।’ पुस्तक में इसकी पुष्टि करता मार्क्स का एक मुंहफट उद्धरण है–– ‘इन मज़दूरों से भी बड़ा संपूर्ण गधा तो कोई हो ही नहीं सकता।’

दो खंडों वाली अपनी भारी-भरकम पुस्तक ‘दास कपिटाल’ के एक खंड के बारें में मार्क्स ने खुद टिप्पणी की है–– ‘मैं इस खंड को और लंबा खींच रहा हूं, क्योंकि जर्मन कुत्ते किताबों की क़ीमत वॉल्यूम (घनफल) में आंकते हैं... मैंने अपनी बातें स्वाभाविक है कि इस प्रकार रखी हैं कि उनका उलटा अर्थ लगाने पर भी मैं ही सही साबित होऊं।’

जर्मन होने का गर्वः मार्क्स को इस बात पर भी बड़ा गर्व था कि वे जर्मन हैं। अतीत में जर्मन और फ्रांसीसी एक-दूसरे से ख़ूब लड़ा करते थे। इसी बात को लेकर मार्क्स ने एक पत्र में लिखा, ‘इन फ़्रांसीसियों को तो ख़ूब कूटा जाना चाहिये।’

इस्लाम से भी उन्हें शिकायत थीः ‘इस्लाम मुसलमानों और नास्तिकों के बीच एक सतत शत्रुता की स्थिति पैदा कर रहा है।’ दूसरी ओर, उत्तरी यूरोप के स्कैंडिनेवियाई लोगों को जर्मनों जैसी ही एक श्रेष्ठ नस्ल मानते हुए उन्होंने लिखा, ‘जर्मन और स्कैंडिनेवियाई, दोनों एक ही महान नस्ल के हैं। उन्हें आपस में लड़ने के बदले जुड़ने का रास्ता अपनाना चाहिये।’

यदि अपने बारे में मार्क्स का यह कथन ईमानदारी भरा है कि ‘जितना मैं जानता हूं, वह यही है कि मैं कोई मार्क्सवादी नहीं हूं,’ तो प्रश्न उठता है कि जिस सिद्धांत को वे अपने लिए उपयुक्त नहीं मानते थे, उसे मानने का उपदेश दूसरों को क्यों दे रहे थे? उनके इस कथन का तो यही अर्थ निकलता है कि मार्क्सवाद शुरू से ही एक ढकोसला था। एक बहकावा था। एक ऐसा सब्ज़बाग था, जिसका बन सकना व्यावहारिकता के धरातल पर असंभव था। 20वीं सदी के यूरोप और एशिया, अफ्रीका और मध्य अमेरिका के वे सारे देश, जिन्होंने मार्क्सवाद को अपनाया, एक मृगमरीचिका के पीछे दौड़ रहे थे। उससे उन्हें केवल निराशा ही हाथ लग सकती थी।

12 करोड़ लोगों को अनायास मरना पड़ाः सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि 1918 की रूसी समाजवादी क्रांति से लेकर कम्युनिस्ट पूर्वी जर्मनी की बनायी बर्लिन दीवार1989 में गिरने तक, दुनिया के जिन क़रीब दो दर्जन देशों में मार्क्सवादी कभी न कभी सत्तधारी बने, वहां–– मार्क्सवाद-शोधकों के अनुसार–– लगभग 12 करोड़ लोगों को अनायास मरना पड़ा। उन्हें क्रांति के नाम पर, या फिर स्टालिन, माओ त्सेदोंग, किम इल सुंग या पोल पोत जैसे एक-से-एक सिरफिरे सनकी सत्ताधारियों के ऊल-जलूल अभियानों के करण नाहक अपने प्राण गंवाने पड़े।

मार्क्सवाद की बलि चढ़ने वालों की संख्या दोनों विश्वयुद्धों में मरने वालों की सम्मिलित संख्या से कहीं अधिक है। प्रथम विश्वयुद्ध में 3 करोड़ 70 लाख और द्वितीय विश्वयुद्ध में 6 करोड़ 60 लाख लोग मारे गए थे। मार्क्सवादियों के हाथों हुए अनगिनत अत्याचारों और नरसंहारों के लिए, 5 मई 1818 को जन्मे, और हिंसक क्रांतियों द्वारा राजनैतिक सत्ता हथियाने की गुहार लगाने वाले कार्ल मार्क्स क्या बिल्कुल निर्दोष कहे जा सकते हैं? उनसे प्रेरित आजकल के वामपंथी भी क्या कभी आत्ममंथन करेंगे और मानेंगे कि इतिहास मार्क्सवाद को बार-बार झुठला चुका है!

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