अक्स जो संवरता है मुझमें

प्रीति सोनी 
न गुजरने देता है मुझे, न ठहरता है मुझमें 
वो अक्स है या कोई और जो संवरता है मुझमें 
 
हर दफा है मोड़ता मुंह, लौट आता फिर वहीं 
किरदार गर खुद्दार नहीं तो क्यों अकड़ता है मुझमें 
 
निशां है प्यार के या दाग हैं गिरेबां पे अपने 
स्याही पक्की है या इसी का रंग उतरता है मुझमें 
 
खाक औरों को पहचानेंगे जो खुद को न जान सके 
फरेब ए मोहब्बत के बाद तो बस वो सिहरता है मुझमें 

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