बहुत से टूटते सपने सलते दुखते हुए रो रहे थे,
मरुस्थल से जलते मन पर जैसे छाले पड़ गए थे।
अरमानों का टपकता लहू मेरी आंखें धो रही थीं ,
सिसकती चांदनी भी दिल के घाव सहला रही थी।
मैं, बेचैन-सी सिरहाने नींद धर-धर के जागती रही,
आखों में यादों के कितने, बीहड़ जमा करती रही।
कोई छत नहीं, कैसे देखो सिर पर खड़ी बरसात है?
जिंदगी की क्या बात करूं, हाथ कागज की नाव है।