हिन्दी कविता : अफसोस

देख आज के हालात
सिर पकड़ बैठ जाता हूं
 
सब ओर लाचार बेचारी 
दीनता हीनता है
गरीबी और बेबसी है
फिर अफसोस क्यों ना हो
 
बचपन जब हो भूखा प्यासा
ना हो खाने को दाना 
क्यों ना हो अफसोस
कल की बात
शहर का मुख्य चौराहा
वाहनों की लंबी 
लंबी सी कतारों के बीच
 
जीर्णशीर्ण बसन छिद्रों से भरी
मांगती बस
गोद में लिए बच्चे की खातिर 
दस बीस रूपए 
 
यह मेरे भारत की तस्वीर 
बस अफसोस 
वो पालिटिशियन
खीचतें खाका देश का
 
उस महिला का कोई
अस्तित्व नही इस मेप में 
काश
उसकी दीनता गरीबी
 
ख्वाहिश अभिलाषा 
स्तर के लिए काश
निर्धारित कोई स्थान होता
बस देख अफसोस 
होता है
 
अफसोस होता है
देखकर वह वृद्धा
जो सड़क के फुटपाथ 
साइड से सूखे भूसे 
 
टाट पट्टी का 
जो उसकी अवस्था 
की तरह जीर्णशीर्ण 
तार तार है
 
बस बना आशियाना
भावी जीवन का
दिनों को काटती है
बस देख अफसोस 
 
होता है अफसोस 
क्योंकि 
मर्द कहलाने वाला 
जन्तु जो उसकी कोख से
पैदा हो बड़ा हुआ
 
नहीं रख सकता
पर क्यूं 
शायद प्यार बंट गया 
पत्नी में, बच्चों में
आफिस में दोस्तों में
 
कितने ही टुकड़ों में बांट डाला उसने 
मां का वो प्यार
मिला जो जन्म से जवान होने तक
देख होता बस अफसोस

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