दुर्गोत्सव पर कविता : आई हो मां जो इस दफा

मां आई हो जो इस दफा तो जाना नहीं
रुको देखो जरा गिरते हुए मानदंडों को
बिखरते मुक्त स्वप्नों को
 
देखो कितना सन्नाटा सा फैला है
हर चूड़ी की खनक डरती है
 
कि कहीं उसकी आवाज न दब जाए
हर चमकीली मुस्कान सहमती है
 
कि कहीं वह कुचल न दी जाए
देखो मां कितनी चरमराती है व्यवस्था
सम्मान की
 
कैसे शिथिल हुई जा रही है 
तुम सी ही उर्जा
बिना किसी सबल संकल्प के
 
कितनी ही मांएं घायल हैं, भूखी हैं
सदियों से स्व की खोज में 
प्यासी हैं स्व के ओज से
 
देखो मां आई हो जो इस दफा तो जाना नहीं
 
जबकि तुम ही अन्न हो, पात्र भी तुम
तुम ही भूख हो, मांगने वाला हाथ भी तुम
 
तुम ही आग हो, जलने वाली काया भी तुम
तुम ही वस्त्र हो और खींचने वाली माया भी तुम
 
तुम ही देह हो और उसमें दौड़ती श्वास भी तुम
रुक जाओ देखो जरा
नतमस्तक हुए शीश भी तुम और समक्ष श्री रूप भी तुम
रुको जब तक सभी प्रश्नों के उत्तर मिलते नहीं 
 
देखो मां जो आई हो इस दफे तो जाना नहीं
 
देखो मां जो आई हो इस दफे तो जाना नहीं...॥
 
दुर्गोत्सव की शुभकामनाएं सभी को...। 

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