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हे बापू, तुम फिर आ जाते...
सुशील कुमार शर्मा
हे बापू, तुम फिर आ जाते,
कुछ कह जाते, कुछ सुन जाते।
साबरमती आज उदास है,
तेरा चरखा किसके पास है?
झूठ यहां सिरमौर बना है,
सत्य यहां आरक्त सना है।
राजनीति की कुटिल कुचालें,
जीवन को दूभर कर डाले।
अंदर पीड़ा बहुत गहन है,
मन को आकर तुम सहलाते।
हे बापू, तुम फिर आ जाते,
कुछ कह जाते, कुछ सुन जाते।
सर्वधर्म समभाव मिट रहा,
समरसता का भाव घट रहा।
दलितों का उद्धार कहां है,
जीवन का विस्तार कहां है?
जो सपने देखे थे तुमने,
उनको पल में तोड़ा सबने।
युवाओं से भरे देश में,
बेकारी कुछ कम कर जाते।
हे बापू, तुम फिर आ जाते,
कुछ कह जाते, कुछ सुन जाते।
स्वप्न तुम्हारे टूटे ऐसे,
बिखरे मोती लड़ियों जैसे।
सहमा-सिसका आज सबेरा,
मानस में है गहन अंधेरा।
भेदभाव की गहरी खाई,
जान का दुश्मन बना है भाई।
तिमिर घोर की अर्द्ध निशा में,
अंधकार में ज्योति जगाते।
हे बापू, तुम फिर आ जाते,
कुछ कह जाते, कुछ सुन जाते,
स्वतंत्रता तुमने दिलवाई,
अंग्रेजों से लड़ी लड़ाई।
लेकिन अब अंग्रेजी के बेटे,
संसद की सीटों पर लेटे।
इनसे हमको कौन बचाए,
रस्ता हमको कौन सुझाए।
जीवन के इस कठिन मोड़ पर,
पीड़ा को कुछ कम कर जाते।
हे बापू, तुम फिर आ जाते,
कुछ कह जाते, कुछ सुन जाते।
कमरों में है बंद अहिंसा,
धर्म के नाम पर छिड़ी है हिंसा।
त्याग-आस्था सड़क पड़े हैं,
ईमानों में पैबंद जड़े हैं।
वोटों पर आरक्षण भारी,
गुंडों को संरक्षण जारी।
देख देश की रोनी सूरत,
दो आंसू तुम भी ढलकाते।
हे बापू, तुम फिर आ जाते,
कुछ कह जाते, कुछ सुन जाते।
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