मां पर कविता : मां का आंचल

रवि विनोद श्रीवास्तव
बचपन में तेरे आंचल में सोया,
लोरी सुनाई जब भी रोया।
चलता था घुटनों पर जब,
बजती थी तेरी ताली तब।
हल्की सी आवाज पर मेरी,
न्योछावर कर देती थी खुशी।
चलने की कोशिश में गिरा।
जब पैर पर अपने खड़ा हुआ।

झट से उठाकर सीने से लगाना,
हाथों से अपने खाना खिलाना
हाथ दिखाकर पास बुलाना,
आंख मिचौली खेल खिलाना।
फरमाहिश पूरी की मेरी,
ख्वाहिशों का गला घोंट कर  
जिद को मेरी किया है पूरा,
पिता से बगावत कर।
जिंदगी की उलझन में मां, 
तुझसे तो मैं दूर हुआ
पास आने को चाहूं कितना, 
ये दिल कितना मजबूर हुआ।
याद में तेरी तड़प रहा हूं,
तेरा आंचल मांग रहा हूं।
नींद नहीं है आती मुझको, 
लोरी सुनना चाह रहा हूं।
गलती करता था जब कोई 
पापा से मैं पिटता था
आंचल का कोना पकड़कर,
तेरे पीछे मैं छ्पिता था।
अदा नही कर पाऊंगा मैं,
तेरे दिए इस कर्ज को,
निभाऊंगा लेकिन इतना मैं,
बेटे के हर फर्ज को।
तुझसे बिछड़कर लगता है, 
भीड़ में तनहा हूं खोया,
बचपन में तेरे आंचल में सोया,
लोरी सुनाई जब भी रोया।
बहुत सताया है मैंने तुझको,
नन्हा सा था जब शैतान
तेरी हर सफलता के पीछे,
तेरा जुड़ा हुआ है नाम।
गर्व से करता हूं मैं तो,
संसार की सारी मां को सलाम।

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