स्थानांतरण पर कविता : घर

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-डॉ. प्रभा मुजुमदार

मुंबई
 
जिसे संवारा था तिनके-तिनके
उजाड़ रही हूं अपने हाथों 
जानती हूं इतने बरसों का जमा 
बहुत कुछ छोड़ना ही होगा।
 
चयन करती हूं
कम से कम चीजों का
जो साथ ले जाई जा सकती हैं।
 
मन-मन का पत्थर सीने पर रखकर
रद्दी के ढेर में डालती हूं
अपनी पसंदीदा किताबें
पत्रिकाएं, डायरियां
स्कूल की टीम से खेलते वक्त 
बच्चों को मिली हुईं शर्ट्स।
 
जीर्ण-शीर्ण, पुरानी मगर बेहद प्रिय साड़ियां
पुराने बर्तन, खिलौने, बड़े चाव से
रिकॉर्ड की हुई कैसेट्स 
अपना ही एक एक हिस्सा
जैसे तोड़-तोड़कर फेंक रही हूं।
 
यादों की गठरियां
खुल-खुलकर बिखर रही हैं
छूटी हुईं सारी चीजें सवाल करती हैं
जरूरतों के उन पलों की याद दिलाती हैं।
 
पता ही नहीं था
निर्जीव चीजों के पास 
इतनी सशक्त अभिव्यक्ति होती है
कह सकती हैं वे बच्चों की जुबान में 
गेंद से टूटे शीशों 
टेढ़े हुए पंखों की कहानी।
 
लड़ाई, झगड़े, जन्मदिन की पार्टियां
इन्हीं कमरों में
इकट्ठे हुए बच्चों के हंगामे
बीमारी, तीमारी और हिदायतें
पढ़ाई, परीक्षाएं साल-दर-साल
हॉस्टल में जाने के बाद भी 
मेरी ही तरह, उनकी राह ताकती
आहट सुनती, आंख बिछाती।
 
फेंकने, समेटने की 
यातनादायक घड़ियों के बाद
उजड़े हुए इन कमरों को देखकर 
एक खामोश रुलाई रोती हूं मैं।
 
साक्षी रहे जो कोने-अंतरे-दीवारें-दरवाजे
सुख-दु:ख के हर पल 
चैन, संबल, सत्कार मिला 
हर बार लौट आने पर
वह घर अब अपना नहीं लग रहा। 

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