कविता: समझाइश की विरासत

तृप्ति मिश्रा
नहीं लेती विरासत में से
अपना हिस्सा बेटियां
पर विरासत तो मिलती है
जिसे जीवन भर ढोती बेटियां

इस विरासत को तो उन्हें
लेना ही पड़ता है
इसी के अनुरूप सर्वस्व
गढ़ना ही पड़ता है

समझाइश की विरासत तो
लेनी ही पड़ती है बेटियों को

ये विरासत है
संभल कर हंसने की
संभल कर बोलने की
ये विरासत है
नज़रें नीची रखने की
ज़बान नहीं खोलने की
ये विरासत है
धीरे-धीरे चलने की
खाना बनाना सीखने की
ये विरासत है
घर गृहस्थी के काम में
खुद से होकर ढलने की

समझाइश की विरासत तो
लेनी ही पड़ती है बेटियों को

ये विरासत है
अपने ख्याल से पहले
सबका ख्याल रखने की
ये विरासत है
सब को खाना खिलाकर
खुद आखिर में खाने की
ये विरासत है
पति की झिड़कियों पर
आवाज़ ना उठाने की
ये विरासत है
बिखरती गृहस्थी को अकेले
हर रोज़ जमाने की

समझाइश की विरासत तो
लेनी ही पड़ती है बेटियों को

नहीं लेती विरासत में से
अपना हिस्सा बेटियां
पर विरासत तो मिलती है
जिसे जीवन भर ढोती
बेटियां

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(लेखिका समकालीन साहित्यकारों में सामाजिक विडम्बनाओं को उजागर करती लेखनी के लिए जानी जाने वाली, महू मध्यप्रदेश की लेखिका एवं कवियित्री तृप्ति मिश्रा साहित्य के साथ लोकगायन को भी संरक्षित कर रही हैं।)

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