मालवा में बसी है उनके चित्रों की आत्मा

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गोबर लिपे घरों के अधखुले दरवाजे है
तुलसी का क्यारा, लकडि़यों की खिड़किया
धूप और धूल है उड़ती हु
सूखता कुआँ और टूटी मुँडेर ह
एक पगडंडी है कहीं जाती हु

एक पेड़ है अपने पत्तों को उतारता हु
एक चिड़िया पंख फड़फड़ाती हु
हरे-पीले खेत हैं जिन पर तना हुआ है नीला आसमान
सीधा पल्लू लिए लजाती एक स्त्री ह
ढोल बजाता हुआ एक युवक

ख्यात चित्रकार ईश्वरी रावल के एकदम ताजा चित्रों को देखकर मैंने यह फिर महसूस किया कि उनकी चित्रात्मा मालवांचल में बसती है। चाहे मूर्त हों या अमूर्त चित्र, उनमें ग्रामीण स्मृतियाँ कई रंगतों में रूपाकार ग्रहण करती हैं। ये रूपाकार, यथार्थ का हिस्सा होने के बावजूद हूबहू यथार्थ के रूप में अभिव्यक्त नहीं होते बल्कि कलागत अनुभव बनकर इस तरह रूपांतरित होते हैं कि परिचित चीजें अपरिचित होकर नए सिरे से परिचित होती हैं।

ज्यादा आत्मीय हो जाती हैं, सुंदर, अपने पास बुलाती हुईं। उनका कुल जमा संसार यही है और यही कई तरह से खुलता-निखरता हमें बुलाता है कि आओ और इन ग्रामीण रंगतों को कुछ देर निरखो। ये रंगतें उनकी आधुनिक चित्र संवेदनाओं से कंपित रहती हैं। इसी में एक गाँव धड़कता है, पगडंडी लौटती है और पीली धूप, धूल के साथ पीली पत्तियों से बातें करती हैं। यह चित्रमयी आंचलिकता है।
कर्नाटक चित्रकला परिषद में प्रदर्शित होगी इरा
  चित्रकार ईश्वरी रावल ने मूर्त और अमूर्त चित्रों के जरिए सालों पहले जता दिया था कि उनकी दोनों ही माध्यमों में खूब रियाज है। बैंगलुरु की कर्नाटक चित्रकला परिषद में उनकी ऑइल चित्रों की एकल प्रदर्शनी 12 से 18 अगस्त तक प्रदर्शित होगी।      


ईश्वरी रावल कहते हैं मैं जीवन में भी और अपनी पेंटिंग्स में भी बार-बार गाँव की तरफ लौटता हूँ। मेरी माँ अकसर मुझसे कहती है कि इतने साल इंदौर में रहने के बाद भी मुझमें से गाँवठीपन नहीं गया। मुझे अब भी गाँव की धूप, उसमें उड़ती धूल, सूखते पेड़ पर बैठी चिडि़या, मुड़ते रास्ते, कुआँ, खेत और उन पर तना हुआ आसमान मेरे वहाँ के होने की याद दिलाते हैं।

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उनका मानना है कि यही सब मेरी पेंटिंग्स में परंपरा से होकर गुजरता है और मेरी आधुनिक संवेदना से नए रूपाकार लेता है। मिसाल के तौर पर मैं गाँव में एक पेड़ पर पीली होती पत्ती को देखता हूँ, उसमें बचे हुए हरेपन को देखता हूँ और जिस शाख पर वह उगी है उस शाख का भूरा रंग भी देखता हूँ और कहीं खिला हुई छोटा-सा लाल फूल भी देखता हूँ। यह देखा हुआ मुझमें हमेशा के लिए रच-बस जाता है।

जब मैं कैनवास के सामने होता हूँ तो वह पत्ती, शाख और फूल को तो भूल जाता हूँ लेकिन वे जिन रंगों में मेरी स्मृति में ठहर गए थे वे ही अलग-अलग ढंग से मेरी पेंटिंग्स में रूपायित होते हैं। यानी यह एक तरह से रंगों का साथ-साथ रहना मेरे लिए खास महत्व रखता है।

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यानी रावल अपने रंग और रूपाकार प्रकृति से ही ग्रहण करते हैं। वे अपने कैनवास पर इन्हें खुलने-खिलने के लिए स्पेस क्रिएट करते हैं। एक रंग घुलता हुआ, दूसरे से मिलता है और तीसरे के लिए जगह बनाता है। उनके कैनवास पर रंगों का यह फैलाव उनके विचार का भी फैलाव है। इसमें हर बार कुछ अनकहा छूट जाता है जो दूसरे चित्र को बनाने की प्रेरणा बनता रहता है

वे कहते भी हैं कि मैं नेचर को अपना गुरु मानता हूँ और कुछ रंग हमेशा रचे-बसे रहते हैं। कैनवास के सामने जाने पर यह तय हो जाता है कि मुझे कौन-सा रंग कहाँ, किस रंग के साथ रखना है। इसमें नए रंगों की रंगत भी शामिल होती रहती है। वे अपनी ही एक पेंटिंग एट टर्न ऑफ सेंचुरी का उदाहरण देते हैं।

वे कहते हैं इस पेंटिंग में एक आधुनिक स्त्री समाज की तरफ पीठ किए है। नीले रंग में है। उसके सामने बर्न्ट अम्बर के साथ मैंने क्रोम ऑरेंज का इस्तेमाल किया है। इससे स्त्री के सामने एक उजास फैला हुआ है। यानी यह एक स्त्री है जो तमाम रूढि़यों को तोड़ कर अपने लिए जगह बना रही है और अपने जीवन के अँधेरों को दूर कर रोशनी की नई दुनिया में शामिल हो रही है।

यह एक ऐसी स्त्री है जो शताब्दी के नए मोड़ पर खडी बेहतर दुनिया को देख रही है। वे कहते हैं-पेंटिंग बनाते समय मैं पूरी तरह से पेंटिंग में रहता हूँ और पेंटिंग मुझमें रहती है और उसके रचने का आस्वाद देर तक बना रहता है।


कर्नाटक चित्रकला परिषद में प्रदर्शित होगी इर
चित्रकार ईश्वरी रावल ने मूर्त और अमूर्त चित्रों के जरिए सालों पहले जता दिया था कि उनकी दोनों ही माध्यमों में खूब रियाज है। बैंगलुरु की कर्नाटक चित्रकला परिषद में उनकी ऑइल चित्रों की एकल प्रदर्शनी 12 से 18 अगस्त तक प्रदर्शित होगी। इरा (पृथ्वी) शीर्षक की इस प्रदर्शनी में उनके ताजा 18 काम होंगे जिनमें मूर्त-अमूर्त चित्र शामिल हैं। उनकी 22 एकल और लगभग इतनी ही समूह प्रदर्शनियाँ हो चुकी हैं। उन्होंने प्रतिष्ठित नेशनल आर्ट कैम्प्स में शिरकत की है।