श्वेताजी उस वृद्धा के पलंग के पास बैठी बड़े मनोयोग से उसकी बातें सुन रही थीं या सुनने का नाटक कर रही थीं। वह श्वेताजी के लाए फलों और बिस्किटों को लालसा-भरी आँखों से ताक रही थी। श्वेताजी के साथ आईं दूसरी महिलाएँ भी इस तरह आश्रम में दूसरे वृद्धों के साथ थीं।
ये महिलाएँ आश्रम में रह रहे इन उपेक्षितों को यह एहसास दिलाना चाहती थीं कि वे समाज से कटे हुए नहीं हैं। विचार अति उत्तम था।
कुछ महिलाएँ फल छीलकर काट-काटकर खिला रही थीं। कुछ उन्हें सहारा देकर बैठा रही थीं तो कोई कंघी कर रही थी। पूरे समय स्टिल और वीडियो फोटोग्राफी जमकर चलती रही। पूरे समय महिलाओं के चेहरे पर हँसी बिखरी रही। उन आश्रमवासियों से ढेरों आशीष समेट फिर आने का वादा कर सब आश्रम से बाहर आईं। दो गाड़ियों में भरकर झंझावात की तरह आई थीं और तूफान की तरह निकल गईं।
हाय-बाय करके श्वेताजी गाड़ी से घर पर उतरीं और बाथरूम में जा जल्दी से नहाने का सोच रही थीं। बाथरूम के पास सासुजी के कमरे से बदबू का झोंका और धीमी आवाज में उनकी प्रार्थना - 'हे प्रभु, इस नर्क से जल्दी उठा ले।' श्वेताजी ने झाँककर देखा, वे गंदगी में लथपथ।
' अरे, आज अटेंडेंट नहीं आई क्या?' बोलती हुई नाक-भौं सिकोड़ते हुए दूर के कमरे की ओर दौड़ लगा दी।
वहाँ न तो स्टिल फोटोग्राफी हो रही थी, ना ही वीडियो फोटोग्राफी। वहाँ तो कुदरत का श्वेत-श्याम फोटोग्राफ था, बस सफेद और काला, व्हाइट इज व्हाइट, ब्लैक इज ब्लैक। नग्न सत्य! बस, और कुछ नहीं।