विवाह की पवित्र वेदी पर बैठी शैलजा की आंखें नीची थीं और मन के भीतर ही भीतर न जाने कितने टन लावा फटकर बाहर आने को मचल रहा था। यह बात भारती भाभी और महेश भाई महसूस भी कर रहे थे। जाने क्यों उन्हें लग रहा था कि शैलजा इस शादी से खुश नहीं है। वर जब मांग भर रहा था, तब भी उसका चेहरा भावशून्य ही था।
पंडितजी मंत्र और वचनों को उच्चार रहे थे, तब भी वह खोई-खोई सी थी। आहुति देते वक्त हवन कुंड की अग्नि में उसका एक-एक सपना जलकर खाक होता जा रहा था। सात फेरों के वक्त शैलजा सोच रही थी कि पापा ने जिस अशोक के साथ मेरी जिंदगी की गांठ जोड़ दी है क्या उम्रभर वह मुझे खुश रख पाएगा? शैलजा के जेहन में और कोई विचार अंकुरित होता, उसके पहले ही पंडितजी की आवाज ने उसे मानो सोते से जगा दिया, 'शुभ विवाह सम्पन्न हुआ, अब वर-वधु सुखी एवं सम्पन्न जीवन के लिए माता-पिता का आशीर्वाद लें।'
शैलजा जब पापा का आशीर्वाद लेने के लिए उनके कदमों में झुकी तो उसके लुटे हुए अरमानों के दो आंसू टपक पड़े। उस वक्त उनकी आंखें भी गीली हो गईं। उन्हें लग रहा था मैं भी कैसा अभागा पिता हूं, जिसने अपनी गरज के लिए फूल-सी बेटी के सपनों को तार-तार कर डाला और बदले में उसी ने मुझे अनोखे 'कन्या ऋण' से मुक्त कर डाला।
दरअसल, शैलजा के पापा को बिजनेस में घाटा हुआ था और भाई का कामकाज भी डांवाडोल चल रहा था। कर्ज देने वाले ऑफिस छोड़कर घर की दहलीज तक आ पहुंचे थे। मां की जिद थी कि बेटी की शादी अपने से ऊंचे खानदान में हो। यही कारण था कि उन्होंने बेटी की खुशी को ताक में रखकर अशोक से विवाह करने की स्वीकृति दी थी।
सेठ रोशनलाल खानदानी रईस थे और उन्होंने शैलजा के पापा को कहा था कि हम तुम्हारे बिजनेस को भी सहारा देंगे। धन की सीमेंट से घर की चरमराती दीवारों का पलस्तर भी करवा देंगे, बस तुम अपनी बेटी को शादी के लिए राजी करवा लो। मेरा बेटा उम्र में बड़ा है तो क्या हुआ! जहां तक तुम्हारी बेटी की मोहब्बत का मसला है तो भला पैसों के आगे वह टिक सकी है, जो अब टिकेगी...।
शैलजा अपने घर के हालात से वाकिफ थी और उसे अपनी कुर्बानी देने में ही सबकी भलाई नजर आई। विदा होते वक्त वह मन ही मन बार-बार उस इंसान से माफी मांग रही थी, जिसके साथ पिछले 10 सालों से न जाने कितने सपनों के महल उसने बनाए थे...।