मित्र मोहन को होली की मस्ती बचपन में कुछ ज्यादा ही रहती थी। पापा से उसका रंग और पिचकारी के लिए जिद करना, मां का डांटना यानी कपड़े, बिस्तर, परदे आदि खराब न कर दे और घर के बाहर जाकर रंग खेले की हिदायत मिलना तो आम बात थी। मोहन बड़ा हुआ तो दोस्तों के साथ होली खेलना, घर के सदस्यों, रिश्तेदारों को छोड़ होली के दिन दिनभर बाहर रहना ये हर साल का उसका क्रम रहता था।
मोहन ने शादी होने के बाद शुरू-शुरू में पत्नी के संग होली खेली। कुछ सालों बाद में फिर दोस्तों के संग। घर में बुजुर्ग सदस्य की भी इच्छा होती थी कि कोई हमें भी रंग लगाए, हम भी खेलें होली। वे बंद कमरे में अकेले बैठे रहते और उन्हें दरवाजा नहीं खोलने की बातें भी सुनने को मिलतीं कि बाहर से मिलने-जुलने वाले लोग आएंगे तो वे घर का फर्श व दीवारें खराब कर देंगे। इसलिए या तो बाहर बैठो, नहीं तो दरवाजा बंद कर दो।
मोहन दीवार पर लगी पत्नी की तस्वीर को देख रहा था। उसे पत्नी की बातें याद आ रही थीं- 'क्या जी, दिनभर दोस्तों के संग होली खेलते हो, मेरे लिए आपके पास समय भी नहीं है। मैं होली खेलने के लिए मैं हाथों में रंग लिए इंतजार करती रही। इंतजार में रंग ही फीका पड़ व हवा में उड़ गया।'