कहते हैं कि संत अल हल्लाज मंसूर (858– मार्च 26, 922) को ईश निंदा के जुर्म में बहुत ही निर्मम तरीके से मारा गया था। कुछ लोग मानते हैं कि उसे फांसी दे दी गई थी। दरअसल, मंसूर को जब आत्मज्ञान हुआ तो उसके मुंह से निकल गया था- 'अनलहक'
लोगों को खरीफा का आदेश था कि इसे पत्थर से मारमारकर मार दिया जाए। जब भीड़ पत्थर मार रही थी तब भी मंसूर हंस रहा था, लेकिन अचानक भीड़ में किसी ने उसे फूल फेंककर मारा तब वह रोने लगा। फूल फेंने वाला कोई और नहीं बल्कि मंसूर का गुरु जुन्नैद था।
जुन्नैद ने उससे चुपचाप पूछा क्या हुआ, तुम मेरे फूल फेंकने पर रोए क्यों? मंसूर ने कहा- लोग मुझे पत्थर मारते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर का पता नहीं है वह निर्दोष हैं, लेकिन आप तो जानते हैं। आप उन लोगों की नजरों में मेरे खिलाफ होने का दिखावा क्यों कर रहे थे? आपने ही तो मुझे जिंदगीभर यही सिखाया था कि कभी दिखावें और पाखंड में मत जिना। आपने फूल फेंकर मेरा दिल तोड़ दिया।