अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर कहानी : जीत लिया तमगा

- पूनम पांडे
 
सातवीं के छात्र मृदुल को आजकल दिन-रात एक ही सपना दिखाई देता है और वह था कि उसने साइकल रेस जीत ली है। ऐसा नहीं था कि वो सिर्फ सपने ही देख रहा था। वो तो दिन-रात मेहनत कर रहा था और उन लोगों के पास भी निरंतर जाता रहता था, जो लोग पिछले वर्षों में साइकल रेस के चैंपियन बने थे। मृदुल रहता ही ऐसी कॉलोनी में था, जहां कोई न कोई अपने क्षेत्र का चैंपियन था कोई शतरंज में, कोई तैराकी में, कोई टेनिस में, कोई कैरम के खेल में।
 
मृदुल को 4 वर्ष की उम्र से बढ़िया साइकल चलानी आती थी और वह अब 12 वर्ष का था। उसका मन कहता था कि यह एक काम ही शानदार है, जो वह अगर मन लगाकर करे तो सफलता मिल ही जाएगी।
 
वैसे यह पहली बार नहीं था। मृदुल पिछले 3 वर्षों से साइकल रेस में हिस्सा ले रहा था, पर उसका हौसला अभी इतना मजबूत न हो सका था। लेकिन उसकी जीतने की प्रबल इच्‍छा उसे बार-बार अतीत की शर्मिंदगी या पराजय से बाहर लाती और खूब मेहनत करके फिर साइकल रेस में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करती। मृदुल ने अगले महीने होने वाली साइकल रेस के लिए अपना नाम पंजीयन करवा ही लिया।
 
मृदुल अपनी पढ़ाई आदि के साथ पूरा जोर लगाकर जुट गया साइकल रेस की तैयारी में। जब भी तेज गति के अभ्यास में उसके पैर झनझनाने लगते थे, वो इसे छिपाता नहीं था। या तो उसी शाम मां-पिताजी से राय ले लेता या फिर अगले दिन अपने खेल-विशेषज्ञ से विद्यालय में पूछ लेता।

शाम को वह कॉलोनी के मैदान में 50 चक्कर की रेस लगाकर पूरे मन से तैयारी कर रहा था। उसकी मां ने उसे पैरों की सहायता से की जाने वाली कुछ योग तकनीक सिखाई। पवन मुक्तासन, गरूड़ासन और सर्वांगासन करके मृदुल को बड़ा ही अच्‍छा महसूस होता था और उसके पैरों में दर्द का स्तर भी कम होता था। अब उसने योगाभ्यास करके स्वयं को मजबूत बनाने की बात मन में बिठा ली।


 
मृदुल ने अपने मन में कुछ और चित्र भी पक्के कर लिए थे, जैसे कि वह घर जाने पर पिछली बार की तरह सुबकते हुए दु:ख नहीं मनाए बल्कि किसी और के जीतने पर भी ऐसा अनुभव करेगा कि वह खुद ही विजेता है इसलिए वह पूरी खुशी के साथ विजेता को बधाई देगा।

साइकल रेस में जो भी परिणाम निकलेगा, उसके लिए न तो सड़क जिम्मेदार है, न मौसम, न उसका बुखार, न किसी शिक्षक की डांट-फटकार बल्कि हर चीज के लिए मृदुल जिम्मेदार होगा। इस बार वह कुछ भी बुरा-भला कहकर किसी को पीठ पीछे अपमानित नहीं करेगा। यह साइकल रेस मृदुल के लिए एक अनुभव की तरह होगी इसलिए वह इसके परिणाम को लेकर कोई सदमा नहीं रखेगा, क्योंकि ऐसा करके वह दूसरों की नजर में अपना अपमान करेगा। 
 
मृदुल यही सकारात्मक विचार अपने मन में लिए हर रोज बड़े जोश और जज्बे के साथ तैयारी में लगा रहा। साइकल रेस के दिन वह न घबराहट में था, न ही चिंता में। आज का दिन भी बाकी दिनों की तरह ही सामान्य है, ऐसा सोचकर वह प्रतिभागियों के साथ एक कतार में खड़ा हुआ। 
 
नियत समय पर एक घंटी की आवाज से प्रतियोगिता शुरू हुई और आत्मविश्वास के साथ मृदुल आगे और आगे बढ़ता गया और बाकी प्रतिभागी काफी पीछे। इस बार तो जैसे खेल ही खेल में प्रतियोगिता संपन्न भी हो गई और 7वीं का वह विद्यार्थी जिसका नाम मृदुल था, बड़े प्रसन्न मन से ट्रॉफी लिए साइकल को चलाता घर के रास्ते पर था।

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मृदुल को सचमुच इस तैयारी ने इतना कुछ सिखाया था कि जीतने पर न वो चिल्लाया, न उछला, न ही कूदा-फांदा। उसके इस शिष्ट और शालीन आचरण के लिए उसकी अलग से प्रशंसा होती रही। वाह! माता-पिता तो ट्रॉफी देखकर गद्-गद् थे। वो आपस में बात कर रहे थे कि बेटे ने 4 वर्ष तक कड़ी मेहनत की, जब जाकर वह ट्रॉफी जीत पाया। मगर मृदुल को सच पता था कि असली मेहनत तो उसने सिर्फ पिछले 30 दिनों में ही की थी। 
 
खैर, 'योग की आदत तो अब मैं छोड़ूंगा नहीं'। उसने अपने मन में फुसफुसाकर कहा। 

साभार - देवपुत्र 

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