History of Hol : हिन्दुस्तानी त्योहार बहुत आकर्षित करते रहे हैं, क्योंकि ये त्योहार मौसम से जुड़े होते हैं, प्रकृति से जुड़े होते हैं। हर त्योहार का अपना ही रंग है, बिलकुल मन को रंग देने वाला। बसंत पंचमी के बाद रंगों के त्योहार होली का उल्लास वातावरण को उमंग से भर देता है। होली से कई दिन पहले बाज़ारों, गलियों और हाटों में रंग, पिचकारियां सजने लगती हैं। छोटे क़स्बों और गांवों में होली का उल्लास देखते ही बनता है।
महिलाएं कई दिन पहले से ही होलिका दहन के लिए भरभोलिए बनाने लगती हैं। भरभोलिए गाय के गोबर से बने उन उपलों को कहा जाता है जिनके बीच में छेद होता है। इन भरभेलियों को मूंज की रस्सी में पिरोकर माला बनाई जाती है। हर माला में 7 भरभोलिए होते हैं। इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से 7 बार घुमाने के बाद होलिका दहन में डाल दिया जाता है।
होली का सबसे पहला काम झंडा लगाना है। यह झंडा उस जगह लगाया जाता है, जहां होलिका दहन होना होता है। मर्द और बच्चों चौराहों पर लकड़ियां इकट्ठी करते हैं। होलिका दहन के दिन दोपहर में विधिवत रूप से इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए घरों में पकवानों का भोग लगाती हैं। रात में मुहूर्त के समय होलिका दहन किया जाता है। किसान गेहूं और चने की अपनी फ़सल की बालियों को इस आग में भूनते हैं। देर रात तक होली के गीत गाए जाते हैं और लोग नाचकर अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हैं।
होली के अगले दिन को फाग, दुलहंदी और धूलिवंदन आदि नामों से पुकारा जाता है। हर राज्य में इस दिन को अलग नाम से जाना जाता है। बिहार में होली को फगुआ या फागुन पूर्णिमा कहते हैं। फगु का मतलब होता है, लाल रंग और पूरा चांद। पूर्णिमा का चांद पूरा ही होता है। हरित प्रदेश हरियाणा में इसे धुलेंडी कहा जाता है। इस दिन महिलाएं अपने पल्लू में ईंट आदि बांधकर अपने देवरों को पीटती हैं। यह सब हंसी-मज़ाक़ का ही एक हिस्सा होता है।
महाराष्ट्र में होली को रंगपंचमी और शिमगो के नाम से जाना जाता है। यहां के आम बाशिंदे जहां रंग खेलकर होली मनाते हैं, वहीं मछुआरे नाच के कार्यक्रमों का आयोजन कर शिमगो मनाते हैं। पश्चिम बंगाल में होली को दोल जात्रा के नाम से पुकारा जाता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण और राधा की मूर्तियों का मनोहारी श्रृंगार कर शोभायात्रा निकाली जाती है। शोभायात्रा में शामिल लोग नाचते-गाते और रंग उड़ाते चलते हैं।
तमिलनाडु में होली को कामान पंडिगई के नाम से पुकारा जाता है। इस दिन कामदेव की पूजा की जाती है। किंवदंती है कि शिवजी के क्रोध के कारण कामदेव जलकर भस्म हो गए थे और उनकी पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें दोबारा जीवनदान मिला।
इस दिन सुबह से ही लोग रंगों से खेलना शुरू कर देते हैं। बच्चे-बड़े सब अपनी-अपनी टोलियां बनाकर निकल पड़ते हैं। ये टोलियां नाचते-गाते रंग उड़ाते चलती हैं। रास्ते में जो मिल जाए, उसे रंग से सराबोर कर दिया जाता है। महिलाएं भी अपने आस-पड़ोस की महिलाओं के साथ इस दिन का भरपूर लुत्फ़ उठाती हैं। इस दिन दही की मटकियां ऊंचाई पर लटका दी जाती हैं और मटकी तोड़ने वाले को आकर्षक इनाम दिया जाता है इसलिए युवक इसमें बढ़-चढ़कर शिरकत करते हैं।
रंग का यह कार्यक्रम सिर्फ़ दोपहर तक ही चलता है। रंग खेलने के बाद लोग नहाते हैं और भोजन आदि के बाद कुछ देर विश्राम करने के बाद शाम को फिर से निकल पड़ते हैं। मगर अब कार्यक्रम होता है, गाने-बजाने का और प्रीतिभोज का। अब तो होली से पहले ही स्कूल, कॉलेजों व अन्य संस्थानों में होली के उपलक्ष्य में समारोहों का आयोजन किया जाता है। होली के दिन घरों में कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं जिनमें खीर, पूरी और गुझिया शामिल हैं। गुझिया होली का ख़ास पकवान है। पेय में ठंडाई और भांग का विशेष स्थान है।
होली एक ऐसा त्योहार है जिसने मुग़ल शासकों को भी प्रभावित किया। अकबर और जहांगीर भी होली खेलते थे। शाहजहां के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी और आब-ए-पाशी के नाम से पुकारा जाता था। पानी की बौछार को आब-ए-पाशी कहते हैं। आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र भी होली मनाते थे। इस दिन मंत्री बादशाह को रंग लगाकर होली की शुभकामनाएं देते थे। पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक सफ़रनामे मे होली का ख़ासतौर पर ज़िक्र किया है।
हिन्दू साहित्यकारों ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ियों ने भी होली को लेकर अनेक कालजयी रचनाएं रची हैं। अमीर ख़ुसरो साहब कहते हैं-
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब ऐ इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया वो तो दोनों बसंती रंग दे
जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरबी रख ले
आन परी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे...
होली के दिन कुछ लोग पक्के रंगों का भी इस्तेमाल करते हैं जिसके कारण जहां उसे हटाने में कड़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है, वहीं इससे एलर्जी होने का ख़तरा भी बना रहता है। हम और हमारे सभी परिचित हर्बल रंगों से ही होली खेलते हैं। इन चटक़ रंगों में गुलाबों की महक भी शामिल होती है। इन दिनों पलाश खिले हैं। इस बार भी इनके फूलों के रंग से ही होली खेलने का मन है।
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है। यहां पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)