यहाँ होती है 'मेघनाद' की पूजा

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सिवनी। बात चौकाने वाली जरूर है लेकिन यह सच है। बुराई के प्रतीक रावण के बाहुबलि पुत्र मेघनाद को आदिवासी न केवल अपना आराध्य मानते हैं बल्कि उन्हें पूजते भी है। यही नहीं होलिका दहन के दूसरे दिन यानि धुरे़ड़ी को मेघनाद के नाम पर बाकायदा एक बड़े मेले का आयोजन भी करते हैं।

मेघनाद को पूजने के लिए एक ऐसा ही मेला जिला मुख्यालय से 45 किमी दूर केवलारी विकासखण्ड के ग्राम पांजरा में धुरेड़ी को लगता है। इलाके के लोगों का दावा है कि यह एशिया का सबसे बड़ा मेघनाद मेला है। इस ऐतिहासिक मेले की खासियत यह है कि इसमें तकरीबन 20 से 25 गाँव के आदिवासी जुटते हैं।

खंभा होता है पूजा का प्रतीक : यूँ तो मेघनाद की कोई प्रतिमा नहीं है लेकिन पूजा के प्रतीक के रूप में 60 फीट ऊंचाई वाले खंभों को गाँव के बाहर गाड़ा जाता है वहीं इस खंभे पर चढ़ने के लिए लगभग 30 फीट की खूँटी लगाई जाती हैं। एक तरह से यह मचान तैयार हो जाती है। जिस पर तीन लोगों के बैठने की व्यवस्था की जाती है। आदिवासी इसी खंभे के नीचे पूजा अर्चना करते हैं।

मनोकामना पूरी होने पर उपक्रम : मेघनाद मेले में मनोकामना पूरी होने पर ऐसे महिला- पुरुषों को मचान पर ले जाकर पेट के सहारे लिटाकर खम्भे के ऊपरी सिरे में लगी चारों तरफ घूमने वाली लक़ड़ी से बाँधकर घुमाया जाता है। अपनी मन्नतों के आधार पर उसे 60 फीट ऊँचे मंच में घूमना होता है जो मेले का बड़ा आकर्षण होता है। झूलते समय मन्नत वाले व्यक्ति के ऊपर से नारियल फेंका जाता है। इस दौरान आदिवासी हक्कड़े बिर्रे का जयघोष करते हुए वातावरण को गुंजायमान करते हैं।

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