15 अगस्त हर वर्ष आता है आगे भी आकर चला जाएगा। स्वतंत्रता दिवस पर समारोह मनाकर अपनी जिम्मेदारियों से इति श्री कर लेने से कुछ नहीं होगा। आजादी की वर्षगाँठ मनाने के साथ ही इस दिन हर भारतीय को कुछ समय निकालकर यह सोचना होगा कि क्या आज वाकई मैं हम स्वतंत्र है? यदि नहीं तो फिर यह समारोह क्यों?
हम समारोह नहीं भी मनाएँगे तो भी इसका कोई विशेष असर देश की सेहत पर नहीं पड़ेगा जितना कि बुरा असर वर्तमान में चल रहे कॉमनवेल्थ गेम्स में कथित भ्रष्टाचार, जम्मू-कश्मीर की हिंसा, देश में फैल रहे नक्सलवाद और पूर्वोत्तर राज्यों में चल रही नाकेबंदी से पड़ रहा है।
इस तरह आजादी का दिवस मनाने का आज कोई औचित्य ही नजर नहीं आता जिसके पहले दस बार सोचना पड़े कि क्या वाकई हम आजाद हैं?
विगत 2 दशकों से लगातार जल रहे आजाद भारत के कश्मीर की आग कभी शांत क्यों नहीं होती? श्मशान घाट में जलने वाली चिताओं की राख के समान ही यह आग कभी नहीं बुझती। एक ठंडी होती है उससे पहले ही दूसरी वहाँ जलाने के लिए आ जाती है।
भारत-पाक में हो रही वार्ता के एजेंडे और समय कहीं दूर पश्चिमी राष्ट्र में तय होते हैं। आखिर क्यों रूचि है शेष दुनिया की भारत-पाकिस्तान में। कश्मीर इन दो राष्ट्रों की समस्या है इन्हें सुलझाने देने के बजाय ऐसे आगे बढ़कर टाँग फँसाएँगे जैसे उनका मुख्य मुद्दा यह है 1947 के बाद अलग हुए ये दो भाई तो दर्शक मात्र हैं।
कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरुआत होने को चंद दिन शेष हैं इसमें भ्रष्टाचार की जड़ें दूरबीन से तलाश की जा रही हैं। तैयारियों में चल रही खामियाँ दूर करने पर ध्यान कम है, ज्यादा जोर भ्रष्टाचार कहाँ हो रहा है इस पर दिया जा रहा है। हरेक राजनीतिक दल और राजनेता सीबीआई की भाँति काम करने में जुटा है, जिसके लिए मीडिया समूह को भी कम जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
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वर्तमान में जनमानस बनाने का काम मीडिया कर रहा है। अखबार के पहले पन्ने पर आप कुछ भी छाप दो और टीवी चैनल्स पर 2 घंटे का समय इनको दे दो। लोगों की जुबाँ-जुबाँ पर वह चीज ऐसे घुसेगी कि उसे लंच में क्या लिया, यह तो याद करना पड़ेगा लेकिन 'हॉट मसाला' क्या है, उनके मुँह से बिल्कुल किसी फिल्म की पटकथा की भाँति सर्र-सर्र निकलने लग जाता है।
भ्रष्टाचार के मामले में 84वाँ क्रम रखने वाले इस देश की इतनी ही चिंता है तो पहले खेल तो हो जाने दो, बाद में आयोजन समिति, आयोजक, मंत्री, सरकार, विपक्ष सबकुछ यहाँ पर ही हैं। इनमें से कोई भी पक्ष अँगरेज नहीं हैं कि निश्चित तिथि के बाद भारत छोड़कर अन्य देशों में जाकर बस जाएँगे। आईसीयू में लेटा मरीज दर्द से कराह रहा है और आप उसके इलाज के बजाय दुर्घटना के कारणों की जाँच में लगे हो।
देश के लगभग आधे जिले नक्सलवाद से जूझ रहे हैं। पता नहीं कल यह नक्सलवाद मुँह उठाकर किस ओर चल दे। इस नक्सलवाद को कथित तौर पर राजनीतिक दलों का संरक्षण और समर्थन प्राप्त है। सांसदों से इनकी सांठगाँठ भी दबे-छुपे शब्दों में बाहर आती रहती है। देश के सुरक्षा बल अपने ही देश में अपने लोगों की गोलियों का सामना कर रहे हैं। यदि यही आजादी है तो इसे तो कहना चाहिए कि अँगरेज अपना स्थान किन्हीं और को दे गए हैं। देश सही मायनों में आजाद है कहाँ?
पूर्वोत्तर राज्यों में हुई नाकेबंदी के चलते रोजमर्रा की सामग्री मजबूरन सेना के विमानों से वहाँ भेजी जा रही है। अब क्या यह राज्य भी उस भारतीय गणराज्य का हिस्सा नहीं हैं जिसकी हम स्वतंत्रता वर्षगाँठ मना रहे हैं। लोकतंत्र के जरिये चुनी हुई केंद्र सरकार, राज्य सरकार के बावजूद शासन तो उपद्रवियों चला रहे हैं।
मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 76 किमी दूर चुगा नदी पर बना चुगा बाँध 29 वर्षों में जाकर पूरा हुआ है। इसकी अनुमानित लागत 15 करोड़ रुपए से बढ़कर 381 करोड़ रुपए हो गई। है कोई माइकालाल जो आगे आकर इस अव्यवस्था की .01 फीसदी भी जिम्मेदारी ले सके।
जिन लोगों ने गुलामी की जंजीरों से देश को मुक्त कराया है और खुली हवा में साँस ले रहे हैं। उन्हें आजादी का अहसास ठीक से हो कहीं उससे पहले दूसरे तरह के अँगरेज और इनकी ईस्ट इंडिया कंपनी हमें फिर न कैद कर ले। 'रक्षक ही बन जाएँगे भक्षक' तो हम किसी को दोष भी नहीं दे पाएँगे।
विदेशों में जाकर बस रहे डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, आईटी प्रोफेशनल्स, अंतरिक्ष विज्ञानी आदि इस बात का सबूत हैं कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, फिर इनके लिए यहाँ अवसरों की कमी आखिर क्यों?
देश की जिम्मेदारी पहले हम अपने कांधों पर लें, उसके बाद समारोह तो कई तरह के कभी भी मनाए जा सकते हैं। हरेक वर्ष यह समारोह मनाने से पहले प्रत्येक भारतीय नागरिक दिल और दिमाग से सुनिश्चित कर ले कि क्या वाकई मैं भी स्वतंत्र भारत का स्वतंत्र नागरिक हूँ, इसी भारत को मैं स्वतंत्र कहना पसंद करूँगा। उसके बाद ही 1947 के बाद के वर्षों की गिनती करे। अन्यथा कहे कि देश केवल अँगरेजों की रवानगी की बरसी मना रहा है।