ये बात है उन दीवानों की, आजादी के परवानों की

स्वतंत्रता से प्यार किसे नहीं होता। भारत ने भले ही परतंत्रता का दंश झेला हो, लेकिन उस परतंत्रता में भारतमाता को स्वतंत्र कराने के लिए उसके अनगिनत सपूतों ने इतिहास के नए अध्याय रच डाले। जलियांवाला बाग कांड किसने नहीं सुना? 


 
1. अमृतसर की धरती पर और भी बहुत रक्तपात हुआ जिनमें वीरों ने अपने खून से पराधीनता के खिलाफ लड़ी गई जंग की कहानी लिखी। भारत के ऐसे बलिदानी वीर सपूतों में कई ऐसे सपूत भी रहे, जो गुमनाम हैं या कह सकते हैं जिन्हें हम आज तक नहीं जानते।
 
बहुत से बलिदानियों का नाम लिखकर इतिहास ने खुद का मान बढ़ाया तो बहुत से बलिदानियों ने इतिहास को यह मौका न देकर उससे उसका हक छीन लिया और इतिहास उनकी गौरव गाथा से वंचित होकर रह गया।
 
आजादी की जंग की घटनाओं में वीरों ने अपनी खून की बूंदों से हमारे स्वर्णिम आज को हमारे हाथ में सौंप दिया। उनके देशप्रेम और वीरगाथाओं के कई ऐसे स्थान हैं, जो न सिर्फ उनकी गौरवगाथा का गुणगान करते नजर आ रहे हैं बल्कि उनके देश के प्रति सद्भाव का सच्चा व प्रत्यक्ष प्रमाण भी खुद को चीख-चीखकर बताते नजर आ रहे हैं।

2. जलियांवाला बाग की तरह होती रही हैं निर्मम हत्याएं
 
* जनरल डायर की तरह समान हत्यारा था कूपर
 
सन् 1857 की जंग में छावनी से भागे 4 सैनिक अजनाले से 6 मील की दूरी पर रावी नदी के रेत पर भूखे-प्यासे और थके 4 सैनिक पड़े थे। सूर्योदय से पहले ही कूपर नामक बौखलाए अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें घेर लिया और उन निहत्थों के लिए आदेश जारी कर दिया- 'मारो'।
 
पूरा तट गोलियों की बौछार से गूंज उठा। तट पर गोलियों की तड़तड़ाहट से आसपास के वन्यजीव पशु-पक्षी भयवश भाग खड़े हुए। उन सैनिकों पर गोलियों की बौछार बेरहमी से कर दी गई। दारुण चीत्कार के साथ सैनिक छटपटाकर शांत हो गए। इसके बाद कूपर ने भागे हुए 282 अन्य सैनिकों को पकड़ा। इन्हें वह मारता-पीटता अजनाले थाने ले आया।
 
वे घुड़सवारों से घिरे और कोड़े खाते भारतीय विद्रोही सैनिक थे। कुछ सैनिक रावी की धारा में कूद गए और थोड़े-बहुत जो बचे, वे अधिक दूर तक भाग नहीं सके। जो अन्य विद्रोही सैनिक पकड़े गए, उन्हें अजनाले के पार्श्व में एक तंग गुम्मद में जिंदा ठूंस दिया गया।
 
यह गुम्मद अब उन शहीदों की जीवित समाधि बन चुका था। इस संकरे गुम्मद को लोग 'काल्या द बुर्ज' कहते हैं। अजनाले में ही कूपर के आदेश पर एक कूप में 283 शहीदों को भरवा दिया गया, जहां वह गुम्मद था। इस कूप को लोग 'काल्या द खूह' कहते हैं। 
 
1857 की क्रांति ने संपूर्ण भारत को एक सूर्य के सदृश ऊर्जा दी, जो वीरों के रक्त की ताकत के कारण संभव हुई थी। धीरे-धीरे साहित्य की धारा बदलने लगी। समय बीता और लेखकों ने कलम को तलवार बना डाला। जिस भारतीय से जो हो सका, वह भारतमाता की सेवा में समर्पण के साथ यथाशक्ति नजर आने लगा।

3. भारत की आजादी में उत्तरप्रदेश का सीतापुर जिला किसी से कम न था
 
भारत की आजादी के संबंध में सामने आए तथ्यों के आधार पर यह कहना बिलकुल न्यायोचित होगा कि सीतापुर जिले की धरती शुरुआत से ही बलिदानी अमर सपूतों की कोख रही है। 1857 की क्रांति में भी अवध प्रांत को इस जिले से 2,000 सैनिकों के जत्थे की सहायता मिली थी।
 
हालांकि 1858 में लखनऊ पर अंग्रेजों ने पताका फहरा ली, लेकिन सीतापुर जिला अपनी बहादुरी के चलते काफी बाद तक स्वतंत्र रहा। जिले का सारा क्षेत्र अक्टूबर 1858 तक अंग्रेजों के कब्जे से बाहर रहा, जो यहां के सपूतों की बहादुरी का सबसे बड़ा प्रमाण है।
 
मितौली के राजा लोने सिंह (जनपद लखीमपुर, उत्तरप्रदेश), बख्शी हरप्रसाद और फिरोजशाह ने अंग्रेजों के इरादों को बार-बार नेस्तनाबूद करते हुए खूब छकाया। खैराबाद बख्शी राजा हरप्रसाद के कारण सीतापुर का अंतिम मोर्चा था। हरप्रसाद की बहादुरी की प्रशंशा शत्रुओं को भी करनी पड़ी।
 
बाद में अंग्रेजों की बड़ी भारी सेना ने इस मोर्चे का घेराव शुरू किया। हरप्रसाद अकेले पड़ गए थे और अंततः निराशा में डूबकर वे अपनी बेगम के साथ नेपाल चले गए। उनके जाते ही सीतापुर पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हो गया। इसके बाद यहां के नैमिषारण्य में काफी दिनों तक क्रांतिकारियों का समागम होता रहा।
 
 

 

4. जब अंग्रेजी शासन ने कराया सीतापुर में गोलीकांड (18 अगस्त 1942)
 
बात 18 अगस्त 1942 की है। सीतापुर जिले का मोतीलाल बाग उन दिनों सार्वजनिक कार्यों एवं प्रदर्शनों का प्रमुख स्थान था। इसे वर्तमान में लालबाग के नाम से भी जाना जाता है। आज भी यहां एक सभा थी।
 
इस सभा को देखकर बौखलाए अधिकारियों ने पहले लाठीचार्ज करवाया और फिर गोली चलवा दी। अंधाधुंध गोलियां बरसाई जाने लगीं। 300 से 400 के लगभग लोग घायल हो गए। अधिकारियों के गोलीकांड और गुंडई के तांडव से अनेक वीर शहीद हो गए। इनमें कल्लूराम पुत्र टेलूराम, जो मोतीलाल बाग सीतापुर के ही थे, शहीद हो गए।
 
इसके अतिरिक्त जिले के मधवापुर के बहादुर चंद्रभाल मिश्र, मोतीलाल बाग के उत्तर में पड़ी मड़ैया में रहने वाला वीर बाबू भुर्जी, हाजीपुर निवासी देशभक्त मैकूलाल, कैमहरा का सपूत मुन्नेलाल और आंट मिश्रिख के निवासी महान मोहर्रम अली आदि शहीद होकर अपना नाम अमर कर गए। 
 
5. सीतापुर जिले में होती थीं देशभक्तों की बड़ी-बड़ी बैठकें और सभाएं
 
सन् 1924 ईसवीं में जिले में प्रांतीय राजनीतिक सम्मलेन हुआ। सभा 18 अक्टूबर को मौलाना शौकत अली की अध्यक्षता में मोतीलाल बाग में हुई। उक्त सभा में मौलाना मुहम्मद अली, पं. मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ. सैयद महमूद आदि उपस्थित थे।
 
गांधीजी भी इस सभा में हिस्सा लेने आए थे। गांधीजी ने यहां पर चरखा और खद्दर पर जोर दिए जाने की बात कही। गांधीजी ने लोगों को संबोधित करते हुए खासकर हिन्दुओं से अनुरोध किया कि वे अस्पृश्यता के कलंक को दूर करें। उन्होंने अपने भाषण के दौरान विभिन्न देशहित की बातें लोगों के सामने रखीं। 
 
6. हर आंदोलन में सीतापुर जिले की सक्रियता
 
सन् 1929 ईसवीं में नमक सत्याग्रह के लिए सीतापुर जिले से लखनऊ तक के पैदल जत्थे सक्रियता से भाग लेते नजर आए।
 
7. सीतापुर के बहुत से अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से कुछ एक की अमर गाथाएं
 
अंग्रेजी हुकूमत ने सीतापुर के कई सेनानियों को घोर यातनाएं और सजाएं दीं। जिले के धंधार डाक बांसुडा में रहने वाले अयोध्या नाथ को 1930 में 3 मास की कैद की सजा दी गई। वे नमक सत्याग्रह आंदोलन से सक्रियता से जुड़े रहे थे।
 
जिले के ही एक अन्य अयोध्यानाथ नामक स्वतंत्रता प्रेमी को लगान बंदी आंदोलन के दौरान एक मास की कड़ी कैद की सजा सन् 1932 ईसवीं में दी गई। ये तंबौर के बेडलिया गांव के लाल रहे और इनके पिता का नाम भगवान था।
 
इसके अतिरिक्त अर्जुन प्रसाद (सिधौली), अली हुसैन (लहरपुर), अवध बिहारी (बिसवां), इलाही बख्श (कमलापुर), कन्हैयालाल (कुंवरपुर), कमला प्रसाद (बढ़ैया, महोली), अंगने लाल (महोली), ओरी लाल (नरनी कठिघरा), गया प्रसाद (नेरी), गिरिजा दयाल (बड़ागांव) और जमुनादीन (चतुरैया) आदि अनेक वीरों के नाम भी प्रमुखता से लिए जाते हैं।
 
जिले के नेरी के मनोहरलाल मिश्र ने सीतापुर के कोषागार पर भारतीय ध्वज शान से फहराकर अंग्रेजी शासन के सामने अपनी वीरता का डंका बजा दिया था। ये इतने देशभक्त थे कि इन्होंने अपने भाई की शराब की दुकान की सारी बोतलें ही तोड़ दीं।
 
इनका मानना था कि इससे उनके माटी के लाल पथ भटकेंगे और बहकेंगे नहीं। उन्होंने अपने भाई को फटकार लगाकर दूसरा व्यवसाय अपनाने की सख्त हिदायत देते हुए मशविरा दिया कि वह कोई दूसरा कार्य कर लें।
 

 
*और जब सीतापुर जिले के धरती के लाल ने ठुकरा दी पेंशन
 
मनोहरलाल मिश्र ने कभी पेंशन नहीं ली। उन्होंने कहा कि देशसेवा पुनीत कर्तव्य होता है और उसके लिए पेंशन की कोई जरूरत नहीं होती। उनका कहना था कि वे किसी पेशे से जुड़े या फिर सरकारी नौकर नहीं थे, जो वे इसके हकदार हैं। इस प्रकार के देशभक्त सपूतों की जननी है सीतापुर जिला।
 
*ब्रह्मावली का लाल जब लखनऊ कारागार में करता था जयघोष
 
जिले के ब्रह्मावली गांव के सीताराम को सब समझाते-बुझाते कि देखो तुम पर घर-गृहस्थी का भार है, लड़के, बच्चे और पत्नी भूखो मर रहे हैं। तुमको परिवार की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए। इन आंदोलनों के लिए हम सब लोग हैं। इस पर सीताराम त्रिवेदी जवाब देते कि 'समझ लो मैं मर गया।'
 
बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लखनऊ कारागार भेज दिया गया। वहां वे हर रोज 'भारतमाता की जय' बोलते और नतीजन उन्हें कोड़ों से मार-मारकर निर्दयता से लहूलुहान कर दिया जाता। वे अपनी देशभक्ति छोड़ नहीं पाते थे, नतीजन उन्हें घोर यातनाएं दी जाने लगीं। इसी कारण वे बहुत कमजोर हो गए थे। घर आकर वे मात्र 6 माह ही जीवित रह सके।
 
*जेल, फांसी और कालापानी हनुमान प्रसाद की जबानी
 
सीतापुर जिले के ब्रह्मावली गांव की धरती पर यूं तो बहुत से रणबांकुरे हुए हैं जिनमें मुकुट बिहारी त्रिवेदी (द्वितीय विश्वयुद्ध योद्धा), सीताराम त्रिवेदी (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) और हनुमान प्रसाद अवस्थी (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) आदि प्रमुख हैं।
 
इन महान विभूतियों में हनुमान प्रसाद अवस्थी, जो कि लगभग 104 वर्ष के आसपास के होंगे, आज भी हमारे बीच मौजूद हैं। इनकी आवाज अब बिलकुल भी स्पष्ट नहीं है, फिर भी जैसे-तैसे हमने उन्हें समझने का प्रयास करते हुए बात की।
 
उन्होंने बताया कि उस समय अंग्रेजों ने न जाने कितने साथियों को जेल, फांसी और कालापानी की सजा दे दी थी। परतंत्र देश में भय का माहौल था। जेलों में नवीनतम ढंग के यातनाओं के साधन मौजूद थे। हनुमान प्रसाद अवस्थी पर भी सरकार के खिलाफ बगावत का अपराध घोषित हुआ था।
 
उन्होंने जगह-जगह लोगों में देशप्रेम और सरकार के खिलाफ बगावत का आह्वान किया, नतीजतन 9 फरवरी 1941 ईसवीं को वे गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए। इन्हें चुनार जेल में 1 साल की सजा काटनी पड़ी और 30 रुपए अर्थदंड भरना पड़ा।
 
आज भी सीतापुर की धरती पर पाकिस्तान से युद्ध लड़े त्रिभुवननाथ त्रिवेदी (ब्रह्मावली), संयुक्त राष्ट्र संघ को सेवाएं देने वाले और कारगिल युद्ध के समय से कार्यरत जांबाज हवलदार गोपाल कांत (ब्रह्मावली) वीरता की परिपाटी जीवित रखते हुए लगातार जिले का नाम रोशन कर रहे हैं। देश के लिए पराक्रम के साथ शहादत में भी यह जिला किसी से आज भी पीछे नहीं है।
 
कारगिल युद्ध में शहीद भारतमाता के सपूत कैप्टन मनोज पांडेय ने न सिर्फ सीतापुर को गौरवान्वित किया बल्कि वीर बलिदानियों की धरती सीतापुर की पूर्वजों की परिपाटी को नई पीढ़ी में आने पर भी जीवंत बनाए रखा।
 
इनके शौर्य और पराक्रम के बलबूते आने वाली पीढ़ी देश पर आस्था के साथ बलिदान होने की गाथा को युगों-युगों तक दोहराती नजर आती रहेगी। 

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